पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३२६

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अभिधर्मकोश 113 हैं : यह उस सूत्र के विरुद्ध है जहाँ यह पठित है कि “अविद्या क्या है ? पूर्वान्त का अज्ञान यह सूत्र नीतार्थ है (नीतार्थ = विभक्तार्थ)। आप इसको नेयार्थ नहीं कर सकते ।। सर्वास्तिवादिन् का उत्तर--कोई बात यह सिद्ध नहीं करती कि यह सूत्र नीतार्थ है। क्योंकि यह सूत्र निर्देशात्मक है, इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। भगवत् यथाप्रधान निर्देश भी करते हैं। यथा हस्तिपदोपमसूत्र में इस प्रश्न के उत्तर में कि 'आध्यात्मिक पृथिवी धातु क्या है' भगवत् कहते हैं 'केश, रोमादि। निश्चय ही केश, रोमादि में रूप-गन्धादि अन्य धर्म भी है किन्तु भगवत्' का अभिप्राय प्रधान धातु से है जो पृथिवी धातु है । इसी प्रकार भगवत् यहाँ अविद्या संज्ञा से वह अवस्था ज्ञापित करते हैं जिसमें अविद्या का प्राधान्य है। सौत्रान्तिक का उत्तर--यह दृष्टान्त कुछ सिद्ध नहीं करता। वास्तव में हस्तिपदोपमसूत्र मैं भगवत् केशादि को पृथिवी धातु से निर्दिष्ट नहीं करते। वह नहीं कहते : “केशादि क्या हैं? ---पृथिवी धातु"। यह केशादि का अपरिपूर्ण निर्देश होगा। किन्तु वह केशादि से [७६] पृथिवी धातु का निर्देश करते हैं और उनका निर्देश सम्पूर्ण है क्योंकि केशादि का अतिक्रम कर पृथिवी धातु नहीं है। इसी प्रकार प्रतीत्यसमुत्पाद में अविद्यादि का निर्देश परिपूर्ण है। कोई सावशेष नहीं है (न सावशेषः)। सर्वास्तिवादिन् का उत्तर -हस्तिपदोपम का निर्देश अपरिपूर्ण है । वास्तव में अश्रु, सिंघाणक आदि में पृथिवी धातु है जैसा कि एक दूसरे सूत्र से ज्ञात होता है। किन्तु अश्रुगत पृथिवी धातु हस्तिपदोपम में नहीं पठित है। सौत्रान्तिक---ऐसा हो सकता है कि हस्तिपदोपम का निर्देश अपरिपूर्ण है क्योंकि आप दिखा सकते हैं कि वहाँ क्या अवशेष है। यदि आप दिखा सकते हों कि सूत्र-निर्दिष्ट अविद्यादि में क्या अवशेष है तो आप दिखावें । 'अविद्या पंचस्कन्धिक अवस्था है' इस निर्देश में अविद्या में जात्यन्तर (पंच-स्कन्ध) का प्रक्षेप क्यों किया है ? हम उसी धर्म को 'अंग' अवधारित कर सकते हैं जिसके भाव-अभाव में अन्य 'अंग' का भाव-अभाव यथासंख्य नियत है । अतः पंचस्कन्धिक अवस्था 'अंग' नहीं है । अर्हत् के (वेदनादि) पंचस्कन्ध होते हैं किन्तु उसमें वह संस्कार नहीं होते २ २

- संयुक्त, १२, २१--पूर्वान्तेऽज्ञानं अपरान्तज्ञानं मध्यान्तेऽज्ञानं बुद्धेऽज्ञानम् धर्मशानम् संघेऽज्ञानम्. पृ.९२ देखिये) व्या २९३. २] कोशस्थान ९, अनुवाद का पृष्ठ २४७ देखिये। लोत्सव का अनुवादः "ऐसा होता है कि देशना में सब केवल नौतार्थ नहीं होते। भगवत् ऐसे निर्देश भी करते है जो यथाप्रधान होते हैं।" शुमान्-चाउ: "सब सूत्र नौतार्थ नहीं होते। ऐसा भी होता है कि वह यथाप्रधान हो। परमार्थ "सब सूत्र इससे नीतार्थ नहीं होते कि वह निर्देश करते हैं....."। शिक्षासमुच्चय, २४५ : मज्झिम, १.१८५ (कतमा अज्झत्तिका पठवीधातु। यसज्झतं कक्खलं. .सेय्यचापि केसा.. .), ३.२४० 'लोत्सव इस सूत्रान्तर के प्रथम शब्दों को शापित करता है : सन्त्यस्मिन् कार्य, शिक्षासमुच्चय, २२८, मध्यमकवृत्ति, ५७, मज्झिम, ३.९०, दोघ, ३,१०४ देखिये।