पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४१

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तृतीय कोशास्थान : लोकनिर्देश यहाँ संजाकरण (२.४७ ए, पृ० २३८) है। यह समुदायप्रत्यायक है, यथा गो, अश्द [९५] आदि, या एकार्थप्रत्यायक है, यथा रूप, रस, आदि। संज्ञाकरण का नामत्व किस कारण है ?--क्योंकि संज्ञाकरण अर्थों में मरूपी स्कन्धों को नमाता है (नमयतीति नाम) । एक दूसरे व्याख्यान के अनुसार अरूपी स्कन्धों को नामन् कहते हैं क्योंकि जब काय निक्षिप्त होता है तब यह स्कन्ध अन्य उपपत्ति की ओर नमते हैं, जाते हैं। हम पडायतन का निर्देश कर चुके हैं। (१.९) ३० वी. स्पर्श छ: हैं। वह सन्निपात से उत्पन्न होते हैं। [९६] प्रथम चक्षुःसंस्पर्श है। छठा मनःसंस्पर्श है (दीघ, ३.२४३ इत्यादि) १ व्याख्या इस विषय पर एक सूत्र उद्धृत करती है। यदि हम इसकी तुलना संयुत्त, ५.३६९ के महानामसुत्त से करें तो रोचक पाठभेद मिलेंगे : मृतस्य खल कालगतस्य ज्ञातय इमं पूतिककायमग्निना वा दहन्ति उदके वा प्लावयन्ति भूमौ वा निखनन्ति वातातपाभ्यां वा परिशोषं परिक्षयं पर्यादानं गच्छति । यत् पुनरिदम् उच्यते चित्तमिति वा मन इति वा विज्ञानमिति वा श्रद्धापरिभावितं शोलत्यागश्रुतप्रज्ञापरिभावितं तदूर्ध्वगामि भवति विशेषगाम्यायत्या स्वर्गोपगम् । व्या ३०३.३२] संयुत्त में केवल पशु-पक्षो मादि से विदीर्ण और खादित काय का उल्लेख है। दीघ, २.२९५ की तरह-नारिमन, आरएच्-आर, १९१२, १.८५ देखिये। स्पर्शाः षट् सन्निपातजाः स्पर्श पर कोश, २.२४, पृ० १५४, ३, पृ०६५, टिप्पणी ४, ८५ देखिय; थियरी आव वेल्ब काज, २२, श्रीमती रीज विडस, धम्मसंगणि, के अनुवाद की भूमिका, पृ० ६३, कम्पेण्डियम, १२, १४ (awareness of the objective presentation) मज्झिम, १.१९०; मत्थसालिनी, १०९,१४१-२ विसुद्धिमग्ग, ४६३, ५९५, मध्यमक- वृत्ति, ५५४ (आवश्यक); विज्ञानकाय (इसका विवरण एशियाटिक स्टडीज, १९२५, १.३७० में है। यहाँ कारिका सर्वास्तिवादियों के मत का निर्देश करती है : सौत्रान्तिक के अनुसार स्पर्श "त्रिकसंनिपात" है किन्तु सर्वास्तिवादिन के अनुसार (बुद्धघोस के अनुसार भी, अत्यसारिनी, १०९) स्पर्श 'त्रिकसंनिपात नहीं है किन्तु इस संनिपात का कार्य है, एक चैतसिक धर्म है, कोश, २.२४॥ 'लिक'चक्षु,विषय और विज्ञान का है। विज्ञान की उत्पत्ति चक्षु,और विषय (तथा समन्वाहार) से होती है, मझिम, १.१९०, मध्यमकवृत्ति, १:५५४- सर्वास्तिवादी का मत है कि विज्ञान (= चित्त) अर्थमात्र जानता है और चैत, चैतसिक [अर्थात् स्पर्श, वेदनादि] अर्थ विशेष जानते हैं।-शरवात्स्की (सेन्ट्रल कन्सेप्शन १५, १७, ५५) विज्ञान का यह व्या- TUTT" "the mind viewed as a receptive faculty, purc consciousness (OF ATTATE I),pure sensation withoutany content" और स्पर्श को 'sensation', 'real sensation' बताते हैं हमारे अन्य (कोश, २.३४, पृ० १७७, टि.५) के निर्देश के अनुसार विज्ञान उपलभ्यतारूप का ग्रहण करता है। यह सर्वप्रारम्भिक 'ज्ञान' है, (जसा मनोविज्ञान के शास्त्रकार कहते हैं) -यह ज्ञान कि हम किसी वस्तु की उपलब्धि करते हैं। किन्तु दूसरी ओर चक्षविज्ञानं नील