पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३४९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३३९ सौत्रान्तिक-यह सूत्र कहता है कि वेदना, संज्ञा और चेतना सहोत्पन्न हैं। वह यह नहीं कहता कि वेदनादि स्पर्श-सहजात हैं : हम कहते हैं कि यह परस्पर सहजात हैं। पुन: यह 'सह' [१०६] शब्द केवल युगपद्भाव ज्ञापित करने के लिये नहीं किन्तु समनन्तर अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। यथा सूत्रवचन है कि “वह मैत्रीसहगत स्मृति-संवोध्यंग की भावना करता है।" मैत्री एकान्त लौकिक, सास्रव होती है । इसका वोध्यंग से समवधान नहीं होता क्योंकि संवोध्यंग एकान्त अनास्रव हैं । अतः सूत्र केवल इतना ही असिद्ध नहीं करता कि वेदना स्पर्शसहजात है किन्तु वह यह भी सिद्ध नहीं करता कि वेदना, संज्ञा और चेतना विज्ञान (चक्षुर्विज्ञानादि) से संप्रयुक्त और उसके सहभू हैं। सर्वास्तिवादिन-किन्तु सूत्रोक्त है : “वेदना, संज्ञा, चेतना, विज्ञान, यह धर्म संसृप्ट हैं; यह विसंसृष्ट नहीं हैं।"२--'संसृष्ट' का अर्थ 'सहोत्पन्न' है। इस सूत्र से यह ज्ञात होता है कि यह विज्ञान, वेदना, संज्ञा और चेतना नहीं हैं जो सहभू नहीं है। सौत्रान्तिक-किन्तु 'संसृष्ट' शब्द का क्या अभिप्राय है ? इसी सूत्र में कहा है : "जिसका प्रतिसंवेदन करता है (वेदयते) उसी की चेतना करता है (चेतयते) ; जिसको चेतना करता है उसी की संज्ञा का उद्ग्रहण करता है (संजानाति); जिसकी संज्ञा का उद्ग्रहण करता है उसी को जानता है (विजानाति)। [१०७] दूसरे शब्दों में आलम्बन-नियम है। जिस आलम्बन का प्रतिसंवेदन करता है उसी की चेतना करता है, एवमादि । प्रश्न है कि क्या वेदना, चेतना और संजा इसलिये संसृष्ट कहे विज्ञाणं। लिपणं संगतिफस्सो। फस्सपच्चया वेदना। वेदतापच्चया तहा। अयं खो टुक्खस्स समुदयो। हमारे सूत्र का पाठ प्रायः ऐसा हैः चक्षः प्रतीत्य रूपाणि चोत्पद्यते घविज्ञानम् । त्रयाणां संनिपातः स्पर्शः। सहजाता वेदना संज्ञा चेतना। एशियाटिक स्टडीज (BEFEO, १९२५), १.३७० में विज्ञानकाय । सहजाता इत्युच्यन्ते न स्पर्शसहजाता इति व्या ३०९.२०], 'सहजात' का अर्थ अविशेषित है। इसलिये इसका अर्थ 'परस्परसहजात' हो सकता है। संयुक्त, २७, २५: मंत्री सहगत स्मृतिसंबोध्यंगं भावयति । मध्यन , ५८,१२--या वेदना या च संज्ञा [या च चेतना यच्च विज्ञानम्) संसृप्टा [इसे धर्मा न विसंसृष्टाः]-साएको उस सूत्र को उद्धृत करते हैं जिसके प्रधान पात्र महा-फो. हि-ल हैं (वही को-ठि-ल जिनको भगवत् उपदेश देते हैं कि आयु और उपमक संसृष्ट' है, नीचे पृ० १०७, टिप्पणी २): पालिसंस्करण, मज्झिम, १. २९३ (महावेदल्लतुत्त , प्रधान पात्र महाकोट्ठित और सारिपुत्त) में 'या च चेतना' यह शब्द नहीं है। धम्मसंगणि, ११९३ का यह वाद है कि वेदना , सजा और संसार (= चेतना) के स्कन्ध 'चित्तसंसट्ट है [अर्थात् आदि से लेकर अन्त तक चित्त से संसृष्ट हैं, अस्थसालिनी, ४९] संसृष्ट पर७.११ डी, अनुमाद पु० १७. तत्र हि सूत्रे उक्तम्--अर्यात व्याख्या के अनुसार उसी सूत्र में जिसमें 'या वेदमा या च संज्ञा याच चेतना पठित है। व्या ३०९.२५] हम इसका उद्धार कर सकते हैं: यद् वेदयते तदेव चेतयते। यच्चतयते तदेव संजानाति । यत् संजानाति तदेव विजानाति मनिझम,१, २९३ में 'यं चेतेति .......नहीं है। संयत्त, ४.६८ से तुलना कीजिये : फुट्ठो वेवेति फट्टो घेतेति फट्ठो संजानाति । ५ १ २ 1 .