पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५८

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३४८ अभिधर्मकोश ( ३.१० और आगे ) अर्थात् अन्तराभव, उपपत्तिभव, पूर्वकालभव, मरणभव का, उत्तरोत्तर क्रम है। [११८] ३७ डी-३८ वी, चार भवों में उपपत्ति-भव स्वभूमिक सर्व क्लेशों से सदा क्लिष्ट होता है। यह सदा क्लिष्ट होता है, यह कुशल या अव्याकृत्त कभी नहीं होता। जब किसी भूमि में (कामधातु, प्रथम ध्यान इत्यादि में) उपपत्ति-भव होता है तब इस भूमि के सव क्लेश उसको क्लिष्ट करते हैं। आभिधार्मिक कहते हैं : "क्लेशों में एक भी क्लेश नहीं है जो प्रतिसन्विवन्ध में चित्त को क्लिष्ट न करता हो किन्तु पुनरुपपत्ति केवल क्लेशवश होती है, 'स्वतन्त्र' पर्यवस्थानों से नहीं [ईर्ष्या, मात्सर्य, क्रोध, मक्ष से नहीं जो केवल अविद्या से संप्रयुक्त हैं। (५.४७) । यद्यपि यह अवस्था-मरणावस्था--काय और चित्त से मन्दिका' हो तथापि यदि एक पुद्गल की किसी क्लेश में अभीक्ष्ण प्रवृत्ति होती है तोपूर्वाक्षेप से यह क्लेश मरणकाल में समुदाचारी होता है। ३८ सी. अन्य भव तीन प्रकार के होते हैं। अन्तराभव, पूर्वकालभव और मरणभव कुशल, क्लिष्ट, अव्याकृत होते हैं। क्या चार भव सब धातुओं में होते हैं ? ३८ सी. आरूप्यों में तीन होते हैं । [११९] अन्तराभव को वर्जित कर–अतः कामधातु और रूपधातु में चारों भव होते हैं। प्रतीत्यसमुत्पाद का व्याख्यान समाप्त हुआ। अब हम विचार करते हैं कि उपपन्न सत्त्व कैसे अवस्थान करते है (तिष्ठन्ति)। ३८ डी. जगत् की स्थिति आहार से है। 1 ४ तस्मिन् भवचतुष्टये।। उपपत्तिभवः दिलप्टः सर्वक्लेशः स्वभूमिकः । २ क्लेश से क्लेश और उपपलेश इष्ट है, ५.४६. ' चित्तवेत्तससुबाचाराद्यपटुत्वात् [व्या ३१६.१४]-यथा ३.४२ डी में 'उपेक्षायां च्युतोद्भवौं । यस्तु पुद्गलो यत्र क्लेशेऽभीक्ष्णम् ( सततं) चरितः (प्रवृत्तः) आसन्न-मरणकालस्य तस्य तदानों स एव क्लेशः समुदाचरति पूर्वावधात् ( = पूर्वाभ्यासात्) [व्या ३१६. १७] कोशस्थान ९, अनुवाद पृ० २९६-७ देखिये। ५ निधान्ये---ऐसा प्रतीत होता है कि यह सर्वथा यथार्थ नहीं है : अन्तराभव का प्रथम क्षण अवश्य क्लिष्ट होता है। प्रय आरूप्येषु-ऊपर पृ० ३२ देखिये। 'आहारस्थितिक जगत् ॥ संयुक्त, १७, २९, एकोतर, ४१, ११, दोध, ३ . २११ (संगीतिसुत्तन्त) : सब्ने सत्ता आहारदितिका सन्चे सत्ता संखारवितिका । अयं खो वसो तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासंबुद्धेन एको धम्मो सम्मदरसातो