पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३५९

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश ३४९ सूत्रवचन है कि "भगवत् ने जानकर और देखकर इस एक धर्म को सम्यक् आख्यात किया है कि सब सत्त्वों की स्थिति आहार से होती है।" चार आहार है-कवडीकार आहार, स्पर्श, मनःसंचेतना, विज्ञान'। कवडीकार आहार औदारिक या सूक्ष्म है । अन्तराभव का (जो गन्ध का भोजन करते हैं जिससे उनका नाम गन्धर्व है, ३ . ३० सी) कवडीकार आहार, देवों का आहार, प्राथमकाल्पिक (३.९७ सी) मनुष्यों का आहार सूक्ष्म होता है क्योंकि यह आहार सकलभाव से शरीर में . प्रवेश करता है जैसे तेल वालुका में प्रवेश करता है और निष्यन्द (मूत्रपुरीप) का अभाव होता है।' अथवा सूक्ष्मों का सूक्ष्म आहार होता है यया (यूकादि) स्वेदजन्तुतः, जातमात्र, बालक [गर्भस्थ] आदि का होता है। [१२० कवडीकार आहारः कागे ध्यायतनात्मकः। न रूपायतनं तेन स्वाक्षमुक्ताननुग्रहात् ॥३९॥ ३९ ए-बी. काम में कवडीकार आहार। यह आयतन यात्मक है।' ऊर्ध्व धातुओं में केवल वह सत्त्व उपपन्न होते हैं जो इस आहार के प्रति वीतराग होते हैं। अतः यह आहार केवल कामधातु में होता है। यह गन्धरसस्प्रण्टव्यात्मक है। वास्तव में गन्ध, रस और स्प्रष्टव्य को कवड में लेते हैं- अर्थात् पिण्डों में और पश्चात् इनका अभ्यवहरण ( = गिलन) करते हैं। यह द्विविध क्रिया मुख और नासिका से होती है । यह ग्रास का व्यवच्छेद करते हैं। किन्तु गन्धादि का आहारत्व कैसे है जो छाया, आतप (१.१० ए), ज्वाला, (मणि आदि की) प्रभा में पाये जाते हैं। वास्तव में जो गन्धादि वहाँ पाये जाते हैं (तत्रत्य) उनका कवडीकार २ -अंगुत्तर, ५.५०, ५५ में 'संखारहितिक' शब्द नहीं है।--पटिसंभिदा, १. १२२. मध्यमकवृत्ति, ४० में एक दूसरा सूत्र उद्धृत है : एको धर्मः सत्त्वस्थितये यदुत चत्वार आहारा:- महावस्तु, ३.६५. संगीतिपर्याय के प्रथम भाग (एक धर्म) का मारम्भ इस प्रकार होता है : "सब सत्त्व आहार- स्थितिक हैं।" संयुक्त, १५, ६, विभाषा, १२९, १५.... लोकप्रशाप्ति (बुद्धिस्ट कास्मालोजी में इसका विवरण है); महाव्युत्पत्ति, ११८, वील, फैटिना, ८८ (रोचक है)। दीघ, ३.२२८ (कळिकारो आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा....) मज्झिम, १.४८, २६१, संयुत्त, २.९८; धम्मसंगणि, ७१, ६४-६, अत्यसालिनी, १५३, विसुद्धिमग्ग, ११, नेत्तिप्पकरण, ११४. उदायिसूत्र देखिये, कोश, २.४४ डी, पृ० २०९, ८.३ सी, पृ० १४० . मूत्रपुरीप चातुर्महाराजों में नहीं है। । कवडीकार आहारः कामे व्यायतनात्मकः। १ कवडीकृत्यान्यवहरणात् । तत् पुनर्मुखेन नसिकया ग्रासन्यवच्छेदात् [च्या ३१६.३२] छायातपज्वालाप्रभास कयम् माहारत्वम् [च्या ३१६. ३४] --संघातपरमाणु मे द्रव्य, २. २२: छाया रूप के क्षुद्रतम भाग में गन्य, रस और स्प्रप्टव्य होते हैं। परमार्थ बहुत स्पष्ट नहीं हैं : "छाया-आतप-ज्वाला-प्रभादि यह गिन्च] कसे आहार है ?"; ३