पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३७२

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अभिधर्मकोश [१३७] जिन सत्वों की उपपत्ति, स्थिति और च्युति होती है उनको भगवत् तीन राशियों में बाँटते हैं : सम्यक्त्वनियत, मिथ्यात्वनियत, अनियत । ४४ सी-डी . आर्य और आनन्तर्यकारी नियत हैं। पहला सम्यक्त्व में और दूसरा मिथ्यात्व में नियत है। सम्यक्त्व क्या है ?--सूत्र के अनुसार राग, द्वेष, मोह का, सर्वक्लेश का अत्यन्स' प्रहाण [अर्थात् निर्वाण]-आर्य कौन है ?--जिसमें आर्यमार्ग अर्थात् अनास्रव मार्ग की उत्पत्ति हुई है । आर्य, क्योंकि वह अकुशल से "दूर गया है" (आराद् यातः), क्योंकि क्लेशों से अत्यन्तिक [१३८] विसंयोग (२.५५डी, पृ० २७८) का उसको प्राप्ति-लाभ हुआ है।-आर्य सम्यक्त्व नियत कैसे हैं ? क्योंकि वह आवश्य निर्वाण का लाभ करेगा। किन्तु जो मोक्षभागियों का लाभ (६.२४ सी) करता है वह भी अवश्य निर्वाण का लाभी होगा। उसको सम्यक्त्व नियत क्यों नहीं मानते?-~-अयोंकि वह सावध कर सकता है जिससे वह मिथ्यात्व में नियत हो; अथवा यद्यपि वह वास्तव में सम्यक्त्व में नियत है तो भी उसको निर्वाण-प्राप्ति में काल-नियम नहीं है जैसा कि सप्तकृत्वःपरम (६.३४ए) आदि आर्य का काल-नियम होता है। मिथ्यात्व क्या है ? -- नरक, तिर्यक्, प्रेतगति । जो आनन्तर्यकारी (४.६६) है वह अवश्य नरक में पुनरुपपन्न होगा। इसलिये वह मिथ्यात्व नियत है। अनियत वह है जो न सम्यक्त्व नियत है और न मिथ्यात्व नियत है । वह नियत होता है या अनियत रहता है यह प्रत्ययापेक्ष है, यह उसके अनागत कर्मों पर निर्भर करता है। २ कायच (?) निष्कामति । उभाभ्यां कक्षाम्यां स्वेदः प्रादुर्भवति । च्यवनधर्मा देवपुत्रः स्व आसने धृति न लभते [यह हमारी दूसरी सूची हैं] 1 नागार्जुन के सुहृल्लेख में यही सूची है। जे. पी. टी. एस. १८८६, १०० (जहाँ तीसरा निमित्त यह हैः काय का वर्ण कुरूप होता है। इतिवृत्तक ८८३ से तुलना कीजिये) । हम जानते हैं कि ५ निमित्त देवों को विशेषित करते हैं। संस्वेद, रज, चक्षुनिमेष, छाया और भूमिस्पर्श का अभाव (ब्लूम फोल्ड, पार्श्वनाथ, वाल्टो मोर, १९१९, पृ० ५१ के हवाले देखिये। दिव्य, २२२ में मान्धाता शक्र से केवल चक्षुनिमेष में भिन्न है। शुआन-चाङ् में यह अधिक है: “जो अन्तराभवस्थ हैं।" सम्पङ मिथ्यात्वनियता आर्यानन्तर्यकारिणः। कोश, ४, ८० डी, अनुवाद १७७. एकोत्तर, १३, २०, दीर्घ, १३, २० महाव्युत्पत्ति, ९५, ११ दोघ, ३, २१७ तयोरासी, मिच्छत्तनियतो रासि, सम्मत्तनियतो रासि, अनियती रासि, पुगल- पत्ति, १३, फेवल नियत और अनियत पुग्गल से परिचित है (पंच पुग्गला आनन्तरिका ये च मिच्छादिदिठका नियता, कोश, ५, अनुवाद पृ० १८, ४, पृ० २०२); किन्तु धम्मसंगणि, १०२८ में तीन राशि हैं। जैसा कि अत्यसालिनी, ४५ और अनुवादक की टिप्पणी से ज्ञात होता है। यह व्याख्यान अभिधर्म के व्याख्यान से भिन्न है ] 1 अनियतों पर, नेत्तिप्पकरण, ९६, ९९ और अर्थकया। सम्यक्त्व का निर्देश ६, २६ ए (अनुवाद पृ०, १८० दि० ४) में है। इस शब्द का यह निर्वचन आम्नाय के अनुकूल है । ३