अभिधर्मकोश कठिन है : यदि महानग्न अपना व उस पर प्रक्षिप्त करे तो वज्र दूर जायगा और वायुमण्डल की क्षति नहीं होगी। अपामेकादशो द्वधं सहस्राणि च विशतिः। अष्टलक्षोच्छ्रयं पश्चाच्छेषं भवति काञ्चनम् ॥४६॥ ४६ए-बी. ११ लक्ष २० सहस्त्र उद्वेध का अन्मण्डल! सत्वों के कर्म के आधिपत्य से वायुमण्डल पर संचित अभ्र का पात होता है, वर्ण्यधारा का पात होता है जिसका बिन्दु रथ की ईषा के बराबर होता है। इस जल का अव्मण्डल होता है। इस मण्डल का वेधन ११ लक्ष २० सहस्र योजन का होता है। [१४०] ये जल पार्श्व से क्यों नहीं बह जाते?' कुछ कहते हैं कि सत्वों के कर्म के आधिपत्य से जल को अवस्थिति होती है। यथा अपक्व भुक्त अन्न और पीत पान पक्वाशय में नहीं गिरते। एक दूसरे मत के अनुसार वायु जल को समन्तात् आस्थित करता है यथा तण्डुल को कोष्ठ प्रकारवत् आस्थित करता है (कुसूलन्यायेन, कोष्ठन्यायेन।) पश्चात् कर्माधिपत्य से समुत्थित वायु से क्षुब्ध होकर जल के ऊपर का भाग काञ्चनमय हो जाता है जैसे पक्व क्षौर की साढ़ी (शर) पड़ती है : ४६ सी-डी. पश्चात् अन्मण्डल का उच्छ्य ८ लाख योजन से अधिक नहीं होता। शेष कांचन हो जाता है। शुभान-चाङ और परमार्थ इस नाम को देते हैं। लोचव का अर्थ शरच्चन्द्रदास, १०२४ के अनुसार स्पष्ट नहीं है। महाव्युत्पत्ति, २५३ देखिये कोश ७.३१, पृ०७३, दि०४; विभाषा,३०,९ अपामेकादशोद्वेधम् सहस्राणि च विंशतिः। लोचव के अनुसार 'ईषाधारामात्रा वर्मधारा' है (कास्मालोजी पृ. ३१७, नोट, विविध तिब्बती संस्करण, लोक प्रज्ञाप्ति आदि देखिये)-'ईवा हल के दण्ड को कहते हैं। परमार्थ का अनुवाद बड़ा दण्ड, किन्तु शुआन-चाङ "गाड़ी का अक्षाग्र"-'ईषा' एक माप भी है (शुल्बसूत्र, मोनियर विलियम्स) प्राग्वर्षा पर नीचे ३. ९० सी, संयुक्त, ३४ ७ (ऊपर पृ० १० में उद्धृत) (ईषाधार अभ्र को वर्षा); शिक्षासमुच्चय, २४७ : अन्न के ३२ पटल लोक को आच्छादित करते हैं। ईवाधार देव ५ अन्तःकल्प तक बसरते हैं। इसी प्रकार गज प्रमेह, अच्छिन्नधार और स्थूलबिन्दुक । पितापुत्र समागम = रत्नकूट, १५, लेवी, जे ए एस १९२५, १. ३७ के अनुसार]--बैंडल ईषाधार नामक एक नागराज का उल्लेख करते हैं, महाव्युत्पत्ति, १६८, २४] शुआन-चाङ के अनुसार--३८४७ में हम देखेंगे कि अन्मण्डल का तिर्यक् १२०३४५० योजन है। अतः यह भेरी सदृश है। यह लगभग उतना ही ऊँचा है जितना को चौड़ा है। यह प्रतिष्ठित कैसे होता है ?--विभाषा, १३३ का यह निर्देश है। इसके अनुसार अन्य वादियों का मत है कि अमण्डल की चौड़ाई वायु मण्डल की तरह अप्रमेय है। २ पक्वक्षोरशरीभावयोगेन- व्याख्या में इस समासान्त पद का विग्रह है-दोध, ३. ८५ को उपमा देखियेः सेय्यथापि नाम पयसो तसस्य निब्बायमानस्य उपरि सन्तानकं होति.. अष्टलक्षोच्छ्यं पश्चाच्छेपं भवति काञ्चनम् । शिक्षा समुच्चय, १४८ सर्वास्तिवादियों के आगम को उद्धृत करता है: कांचन मंडल पर जम्बुद्वीप, ८४००० योजनभूमि, प्रतिष्ठित है !--[कांचनमण्डल को कांचन वज मण्डल कहते हैं, बोधिचर्यावतार, ६.१]-कोश में ८०००० है, ३, ५० बी देखिये। २ ३