पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३८

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश २३ १. यदि ऐसा है तो परमाणु-रूप रूप नहीं होगा क्योंकि बाधन-रूपण और प्रतिघात-रूपण से द्रव्य-परमाणु का रूपण अशक्य है। यह रूपण से मुक्त है। निस्सन्देह परमाणु रूपण से मुक्त है किन्तु एक परमाणु-रूप पृथग्भूत नहीं होता' ; संघा- तस्थ (संचित) होने के कारण संघात की अवस्था में इसका वाधन-रूपण और प्रतिघात-रूपण हो सकता है। (विभाषा, ७५, १४) २. अतीत (संघभद्र, ६३६, १, ८) और अनागत रूप रूप नहीं हैं क्योंकि उनके विषय में यह नहीं कहा जा सकता कि उनका वर्तमान में रूपण, प्रतिधात होता है। (रूप्यन्ते, प्रति- हन्यन्त इति) निस्सन्देह, किन्तु वह रूपित्त हुए हैं और रूपयिष्यमाण हैं। अतीत या अनागत, इनकी वही जाति है जो उस धर्म की है जिसका वर्तमान में प्रतिघात होता है । यथा लोक में केवल प्रदीप्त काष्ठ को ही नहीं किन्तु तज्जातीय को भी, जो इन्धनार्थ कल्पित है, 'इन्धन' कहते हैं। ३. अविज्ञप्ति रूप न होगा क्योंकि वह अप्रतिघ है। निसन्देह, किन्तु हम अविज्ञप्ति के रूपत्व को युक्त सिद्ध कर सकते हैं। [२६] ए-कायिक या वाचिक विज्ञप्ति, जिससे अविज्ञप्ति समुत्थापित होती है, रूप है। इसलिए अविज्ञप्ति रूप है यथा जब वृक्ष प्रचलित होता है तब छाया प्रचलित होती है। नहीं, क्योंकि अविज्ञप्ति में विकार नहीं होता (अविकारात्) । इसके अतिरिक्त यदि वृक्ष- छाया-धर्म इष्ट है तो इष्टान्त की यथार्थता के लिए जिस प्रकार वृक्ष की निवृत्तिसे छाया की निवृत्ति देखी जाती है उसी प्रकार विज्ञप्ति को निवृत्ति से अविज्ञप्ति की निवृत्ति होनी चाहिए। वी--दूसरा निरूपण । अविज्ञप्ति रूप है क्योंकि महाभूत, जो उसके आश्रयभूत हैं, रूप हैं।' दोष-इस प्रकार चक्षुर्विज्ञानादि पाँच विज्ञानकाय के रूपत्व का प्रसंग होगा क्योंकि उनका आश्रय (चक्षुरिन्द्रिय आदि) रूप है । यह उपन्यास विषम है । अविज्ञप्ति महाभूतों पर आश्रित 0 - . व्याख्या का लक्षण-~-पाण्यादिसंस्पर्शोधनालक्षणाद् रूपणात् । इदमिहामुत्रेति देशनिद- निरूपणाच्च व्याख्या ५१.३०]-महाव्युत्पत्ति, २४५, ११३९ के 'देशनिरूपण' से तुलना कीजिए। इसलिए रूप वह है जो सप्रतिध है, जो देश को आवृत करता है। संघ- भद्र अन्य निरूपण देते हैं: रूप को संज्ञा इसलिए है क्योंकि यह पूर्वकृत कर्म का निदर्शन करता है : "इस पुद्गल ने कोप-कर्म का आचरण किया; इससे इसकी कुरूपता का उत्पाद 3 १ न वै परमाणुरूपमेकं पृथग्भूतमस्ति व्याख्या ३४.२४]--१.४३ सी-डी और २.२२ देखिए। आश्रयभूतरूपणात् [व्याख्या २५.२०] । यह वाक्य महाव्युत्पत्ति, १०९,२ में आ गया है। जापानी संपादक विभाषा, ७५, १४ का हवाला देते हैं। व्याख्या सूचित करती है कि यह दूसरा निरूपण वृद्धाचार्य वसुबन्धु का है। [व्याख्या ३५.२० कोश के रचयिता वसुबन्धु के आचार्य मनोरथ के आचार्य वसुबन्ध पर भाष्य, ३.२७ और ४.३ ए तथा बुषिस्ट कास्मालोजी की भूमिका, पृ० ८ (लन्दन, १९१८) देखिए ।