पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२४ अभिधर्मकोश हो वर्तमान है यथा छाया वृक्ष में उपश्लिष्ट हो वर्तमान होती है, यथा मणि-प्रभा मणि में उपश्लिष्ट हो वर्तमान होती है । चक्षुर्विज्ञान इन्द्रिय पर आश्रित नहीं है जो उसकी उत्पत्ति में निमित्त मात्र है। परिहार--- यह वैभाषिक मत नहीं है कि छाया और मणि-प्रभा वृक्ष और मणि के आश्रित है (विभाषा, १३, ९) वैभाषिक मत यह है कि छाया और प्रभा का प्रत्येक वर्ण-परमाणु स्वभूत- चतुष्क का आश्रय ले वर्तमान होता है । और यह मानना कि "छाया पारंपर्येण वृक्ष पर आश्रित है क्योंकि छाया स्वभूत पर आश्रित है और यह महाभूत वृक्ष पर आश्रित हैं" छाया और अविज्ञप्ति के दृष्टान्त को अयुक्त ठहराना है। वैभाषिक मानते हैं कि अविज्ञप्ति के आश्रय (४.४ सी-डी) महाभूत जब निरुद्ध होते हैं तब भी अविज्ञप्ति का निरोध नहीं होता। अतः आप का यह परिहार ("यह उपन्यास विषम है। अविज्ञप्ति ....") अयुक्त है। किन्तु हम कहेंगे कि इस दोष का कि "इस सिद्धान्त के अनुसार पाँच विज्ञानकाय रूप होंगे” परिहार हो सकता है। [२७] वास्तव में चक्षुर्विज्ञान का आश्रय द्विविध है : १. चक्षुरिन्द्रिय जो 'प्रतिघात' (१. २९वी) की अवस्था में है, जो रूप है । २. मन-इन्द्रिय (मनस्, १.४४ सी-डी) जो रूप नहीं है। किन्तु अविज्ञप्ति के विषय में ऐसा नहीं है । इसका आश्रय केवल रूप है। क्योंकि अविज्ञप्ति का आश्रय रूप होने से अविज्ञप्ति रूप कहलाता है इसलिए चक्षुर्विज्ञान को भी रूप कहना चाहिए। यह प्रसंग असमान है। इसलिए दूसरा निरूपण सुप्ठु है। जिन इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ को रूपस्कन्ध बताया है, - - इन्द्रियास्ति एवेष्टा दशस्यतनधातवः । वेदनाऽनुभवः संज्ञा निमित्तोद्ग्रहणात्मिका ॥१४॥ १४ ए-बी-यही इन्द्रिय और इन्द्रियार्थ १० आयतन, १० धातु माने जाते हैं। ' आयतन (चित्त-चत्त का आयद्वार) (१.२०) की व्यवस्था में यह १० आयतन हैं : चक्षुरायतन, रुपायतन कायायतन, स्प्रष्टव्यायतन। धातु (आकर १.२०) की व्यवस्था में यह १० धातु हैं: चतु, रूपधातु स्प्रष्टव्यधातु। हमने रूपस्कन्ध का व्याख्यान किया है और यह भी निर्दिष्ट किया है कि उसका आयतन और पातु में व्यवस्थान कैसे होता है । यव अन्य स्थान्धों का निरूपण करना है। १ इन्द्रियास्ति एवेष्टा (दशायतनधातवः) । व्याख्या ३६.२२] समयप्रदोपिया में संघभद्र का पाठ 'त एवोक्ता' है.वसुबन्ध में 'इट' शब्द का प्रयोग है जिसका अर्थ है कि यह वैभाषिक मत है क्योंकि उनके मत में स्कन्ध वस्तुसत् नहीं हैं {१.२०}। फायधातु,