पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४०७

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तृतीय कौशस्थान : लोकनिर्देश आयु की वृद्धि ८०,००० वर्ष तक होती है। एक बार विवृत्त होने पर यह लोक २० अन्तः कल्प तक अवस्थान करता है। विवर्त, संवृत्त की स्थिति और संवतं का समप्रमाण है। १० अन्तःकल्पों का एक महाकल्प होता है।' ८६ डी. कल्प बहुविध है। अन्तरकल्प, संवर्त कल्प', निवर्तकल्प, महाकल्प । (१८२) ६० ए-वी . संवर्तकल्प, नारक की अनुत्पति से भाजन के विनाश तक। नरक में जव सत्वों की उपपत्ति बन्द हो जाती है उस काल से लेकर भाजन लोक के विनाश तक का काल संवर्तकला कहलाता है। 'संवत' दो प्रकार का है : गति संवर्तनी, धातु संवर्तनी। इसके पुनः दो प्रकार हैं : सत्व- संवर्तनी, भाजनसंवर्तनी। १. जिस काल में नरकोत्पत्ति नहीं होती-किन्तु नारकसत्त्वों की मृत्यु होती रहती है-- उस काल में २० अन्तरकल्प जिसमें यह लोक विवृत्त रहता है निष्ठित होते हैं और संवर्तकल्प का आरम्भ होता है (प्रतिपन्न, आरब्ध)। कल्पो बहुविधः स्मृतः॥ संवर्तकल्पो नरकासंभवाद् भाजनक्षयः। विवर्तकल्पः प्राग्वायोर्यावन् नारकसम्भवः ।। अन्तःकल्पोऽमिताद यावद् दशवर्षायुषस्तत्तः । उत्कर्षा अपकर्षाश्च कल्पा अष्टादशामरे।। उत्कर्ष एकस्तेऽशीति सहलाद् यावदायुषः। इति लोको विवृत्तोऽयम् कल्पांस्तिष्ठति विशतिम् ।। विवर्तते च संवृत्त आस्ते संवर्तते समम् । तेहाशीतिमहाकल्पः अन्तरकल्प, अन्तःकल्प का सामान्यतः अनुवाद 'इंटरमीडियरी फल्प' कहते हैं किन्तु रेमूसा का कहना है कि इससे अर्थ नहीं स्पष्ट होता (मेलाँग १०३, टिप्पणी) अन्तरकल्प या अन्तःकल्प कदाचित् वह कल्प है जो महाकल्प के भीतर होते हैं। रेमूसा का अनुवाद 'क्षुद्र कल्प' यद्यपि अक्षरार्थ नहीं है तथापि कम से कम सुविवाजनक है। फ्लोट ने जे आर ए एस १९११, ४७९ में कल्प और युगों का अच्छा विचार किया है। फ्लीट अशोक के वाक्यों को उद्धृत करते हैं : आव कप, आव संवटकपा-बुद्धघोस के अनुसार मक्खलि ६४ वें स्थान में ६२ अन्तरकप्प मानते हैं, सुमंगल, १. १६२ (चौघ, १. ५४)- जैनों के कल्प, यथा एस बी ई २२. संवर्त आदि चार कल्प जो ९०-९३ में वर्णित हैं (महा) 'काम' के चार 'असंखेय्य' है, रंगुत्तर २.१४२० हम संवत, संवतिनी का अनुवाद 'डिसएप्पीयरेंस' करेंगे। जब हम भाजनसंवर्तनो का उल्लेख करते हैं तब इस शब्द का यही अर्थ होता है। यदा भाजनानि संवर्तन्ते विनश्यन्तीत्यर्थः "जब भाजनों का संवर्तन होता है अर्थात् जब वह विनष्ट होते हैं।"-किन्तु गति संवर्तनी आदि पदों में संवर्त का अर्थ “एकस्य होना" है। जब नारक, तिर्यक आदि देवगति के एक देश में एकस्य होते हैं (संवर्तन्ते, एकस्यो भवन्ति) तब गति संवर्तनी होती है । सत्त्व संवर्तनी तब होती है जब सरव किसी ध्यान लोक में (रूपधातु में) एफस्य होते हैं। २