पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४०८

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४०० अभिधर्मकोश जब नरक में एक भी सत्व अवशिष्ट नहीं होता तब नारकसंवर्तनी की परिसमाप्ति होती है। इतनी मात्रा में यह लोक संवृत्त होता है। यदि इस धातु के किसी सत्व के नियत नरक- वेदनीय कर्म है तो इन कर्मों के आधिपत्य से वह अन्य लोकधातु के नरक में प्रक्षिप्त होता है जो अभी संवृत्त नहीं हो रहा है। (स लोकधात्वन्तरनरकेषु क्षिप्यतें) २. इसी प्रकार तिर्यक् संवर्तनी और प्रेतसंवर्तनी की योजना होनी चाहिये। जो तिर्यक् महोदधि में निवास करते हैं वह पहले विनष्ट होते हैं। जो मनुष्य सहचरिष्णु हैं वह मनुष्यों के साथ नष्ट होते हैं। [१८३] ३. जम्बुद्वीप के मनुष्यों में वशित्ता के विना एक, पुद्गल धर्मताप्रतिसन्धिक' प्रथम ध्यान में समापन्न होता है। इस ध्यान से व्युत्थान कर वह प्रीतिवचन कहता है : “वैराग्य से उत्पन्न प्रीति-सुख आनन्ददायक है ! वैराग्य से उत्पन्न प्रीति-सुख शान्त है !" इन शब्दों को सुनकर अन्य पुद्गल भी ध्यान समापन्न होते हैं और अपनी मृत्यु पर ब्रह्मलोक में प्रवेश करते हैं। जब इस निरन्तर क्रम' से जम्बुद्वीप में एक भी सत्व अवशिष्ट नहीं होता तब जम्बुद्वीप के मनुष्यों का संवर्तन' समाप्त होता है। इसी प्रकार पूर्व-विदेह और अवरगोदानीय के निवासियों की संवर्तनी की योजना होनी चाहिये। उत्तरकुरु के निवासी कामवैराग्य में समर्थ नहीं हैं और इसलिए ध्यान-समापन्न नहीं हो सकते। वह भी पुनरुपपन्न होते हैं किन्तु ब्रह्मा के लोक में नहीं, कामावचर देवों में। जब वहाँ एक भी सत्व अवशिष्ट नहीं होता तब मनुष्य-संवर्तनी की परिसमाप्ति होती है और उतनी मात्रा में लोक संवृत्त होता है। ४. कामावचर देवों की भी ऐसी ही योजना है। तब चातुर्महाराजकायिकों से लेकर परनिर्मितवशवर्तिन् पर्यन्त देव' ध्यान-समापन्न होते हैं और ब्रह्मा के लोक में पुनरुपपन्न होते हैं। इस प्रकार उत्तरोत्तर इनकी संवर्तनी होती है। जब एक भी कामावचर देव अवशिष्ट नहीं होता तब कामधातु की संवर्तनी परिसमाप्त होती है। ५. तब धर्मतावश ब्रह्मा के लोक का एक देव द्वितीय ध्यान में समापन्न होता है। इस ध्यान से व्युत्थान कर उसका यह उद्गार होता है : “समाधिज प्रीति-सुख आनन्ददायक हैं। १ २ . इयतार्य लोकः संवृत्तो भवति नारकसंवर्तनिया। एकोत्तर, ३४, ५; बोल, केटीना, ११३- स्प० हार्डी, मैनुएल, ४७२ कहते हैं कि कल्पान्त में पंच आनन्तर्यकारी (४. ९६) नरक से निष्क्रान्त होते हैं किन्तु विधि- कित्सक (दीघ, १.५५, संयुत्त, ३. २०७ का पुद्गल) अन्य लोकधातु के नरक में पतित होता है (४. ९९ सी. देखिये)। । जिसका नियत तिर्यक् वेदनीय कर्म है वह अन्य लोकधातु में पुनरुपपन्न होगा।-शुभान-वाड़ "जो तिर्यक् मनुष्य-देव सहचरिष्णु हैं उनकी संवर्तनी मनुष्य और देवों के साथ होती है।" दिव्यलोक के तिर्यक, कथावत्यु, २०, ४ मनुष्य सहचरिष्णव इति मनुष्यसहचरणशीला गोमहिषादयः। वह धर्मता प्रतिलम्भिक प्रथम ध्यान का लाभ करता है--धर्मता का अर्थ इस प्रकार है: कुशल धर्मों का उस समय का परिणाम विशेष (कुशलानां धर्माणां तदानीं परिणाम विशेषः) ८. ३८ में इस वस्तु का विचार किया गया है।