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पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४११

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तृतीय कोशस्थान : लोकनिर्देश १० वर्ष की आयु से वृद्धि होते होते ८०,००० वर्ष की आयु होती है। पश्चात् आयु का ह्रास होता है और वह घट कर १० वर्ष की हो जाती है । जिस काल में यह उत्कर्ष और अपकर्ष होता है वह दूसरा अन्तरकल्प है। इस कल्प के अनन्तर १७ ऐसे अन्य कल्प होते हैं। ६२ सी. एक उत्कर्ष का । २० वा अन्तरकल्प केवल उत्कर्प का है, अपकर्ष का महीं; मनुष्यों की [१८७] आयु की वृद्धि १० वर्ष से ८०,००० वर्ष तक होती है। यह उत्कर्ष बढ़ते बढ़ते कहाँ तक जाते हैं ? १२ ए-बी. यह ८०,००० वर्ष की आयु तक जाते हैं। इससे आगे नहीं। १८ कल्पों के उत्कर्ष और अपकर्ष के लिए जो काल चाहिये वह प्रथम कल्प के अपकर्ष काल और अन्त्य कल्प के उत्कर्ष काल के वरावर है।' १२ सी-डी. इस प्रकार लोक २० कल्प तक विवृत्त रहता इस प्रकार गणना कर २० कल्प तक लोक विवृत्त रहता है। इस स्थितिकाल का जो प्रमाण होता है, ६३ ए-वी. उतने ही कालतक लोकका विवर्त-संवर्त होता है और लोक संवृत्तावस्था में रहता है। विवर्त, संवर्त, संवृत्तावस्या के वीस वीस कल्प होते हैं। इन तीन कालों में आयुः प्रमाण के उत्कर्ष-अपकर्ष की अवस्था नहीं होती किन्तु इसका प्रमाण वही होता है जो उस काल का होता है जिसमें लोक विवृत्तावस्था में रहता है। भाजनलोक की विवृत्ति एक अन्तरकल्प में होती है। यह १९ में व्याप्त होता है, यह १६ में शून्य होता है। यह एक अन्तरकल्प' में विनष्ट होता है। २० अन्तर कल्पों का चतुर्गुण ८० होता है: ६३ सी. इन ८० अन्तरकल्पों का एक महाकल्प होता है।' कल्प क्या है?—कल्प पंच स्कन्ध-स्वभाव है। १ २ ४ दूसरे ग्रन्थों के अनुसार ८४००० महायान के अनुसार उत्कर्ष और अपकर्ष के २० कल्प हैं। ३ ते हयशीतिर्महाकल्पः पञ्चकन्यस्वभावः कल्पः-१.७ में इसका निर्देश हुआ है कि स्कन्ध अव्व है। कल्प क्या है ?-विभाषा, १३५, १४ : कुछ कहते हैं कि यह रूपायतनादि स्वभाव है, अहो- रात्रादि स्कन्धों के उत्पाद-व्यय हैं। क्योंकि कल्प अहोरात्राद्यात्मक है इसलिये इसका भी वही स्वभाव है। किन्तु कल्प त्रैधातुक अध्न है। इसलिये यह पंच या चतुःस्कन्वात्मक है।- हुइ हुएइ: "कामधातु (और रूपधातु) का सम्प्रधारण करने पर यह चतुःस्कन्धात्मक है। 'शून्य' कल्प ("जिस काल में लोक संवृत्त रहता है") द्विस्कन्धात्मक है (अर्थात जैसा विवृत्ति में कहा है, संस्कारस्कन्ध और रूपस्कन्ध (क्योंकि आकाश रूप है)। क्योंकि अहो- रात्रादि का अस्तित्व स्कन्धों से व्यतिरिक्त नहीं है।"--कोश की एक टीका में यह कहा कि महायान के अनुसार काल एक विप्रयुक्त संस्कार है। (१०० वर्मों की सूची का ९० वा संस्कृत, विज्ञप्तिमात्र, म्भूजिओं १९०६, १७८-१९४, आर. किमूरा, सोरिजिनल ऐंड डेवेलप्ड डाक्ट्रिन्स, १९२० पू० ५५