पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/४१४

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४०६ अभिधर्मकोश महाकल्प को ६० वें स्थान तक यदि उत्तरोत्तर गुणा करते जावें तो १ असंख्येय होता है।' [१६१] यदि इसको दुहरावें तो दूसरा असंख्येय होता है, तीसरा असंख्येय होता है। असंख्येय नाम इस पर नहीं है कि इसका संख्याओं में संख्यान नहीं हो सकता। किन्तु इसका क्या कारण है कि जब वोधिसत्व एक बार सम्यक् संबोधि के प्रतिलाम के लिये प्रणिधान करते हैं तो भी उसकी प्राप्ति में इतना समय लगाते हैं? क्योंकि सम्यक् संबोधि का लाभ अत्यन्त दुष्कर है, ज्ञान और पुण्य के महासंभार की आवश्यकता है, तीन असंख्येय कल्पों में असंख्य वीर कर्म करने होते हैं। यदि यह वोधि मोक्ष-लाभ का एकमात्र उपाय होती तो हम समझ सकते कि बोधिसत्व क्यों इस दुष्प्राप्य बोधि का अन्वेषण करते हैं। किन्तु ऐसा नहीं है । अतः इस' अप्रमेय श्रम के उठाने की क्या आवश्यकता है ?-परार्थ के लिये, क्योंकि वह दूसरों का दुःखसागर से उद्धार करने का अपने में सामर्थ्य चाहते हैं। किन्तु परार्थ में वह क्या अपना स्वार्थ देखते हैं ? --~-परार्थ उनका स्वार्थ है क्योंकि वह उनको अभिमत है। इसमें कौन विश्वास करेगा?--सत्य यह है कि जो पुद्गल करुणा से शून्य हैं और जो केवल अपना ही विचार करते हैं उनके लिए बोधिसत्वों की परार्थ चिन्ता में विश्वास करना दुष्कर है किन्तु करुणाशील पुद्गल सुगमता से इसमें विश्वास करते हैं। क्या हम नहीं देखते कि कुछ पुद्गल ऐसे होते हैं जिनमें नियत रूप से करुणा का अभाव होता है और जो दूसरे के दुःख में तव भी सुख का अनुभव करते है जब उससे उनका कोई लाभ नहीं होता? (तत्व संग्रह, ८७२ से तुलना कीजिये)। इसी प्रकार यह मानना होगा कि बोधिसत्व नियत रूप से करुणाशील हैं और वह स्वार्थ-साधन के बिना ही परहित करने में सुख का अनुभव करते हैं। क्या हम नहीं देखते कि कुछ पुद्गल स्वसान्तानिक संस्कारो के यथार्थ स्वभाव के अज्ञान-वश अभ्यास-वल से इन धर्मों में अनुरक्त होते हैं. यद्यपि वह धर्म सर्वथा आत्मशून्य हैं और इस आत्म-स्नेह के कारण सहस्रों दुःख भोगते हैं ? इसी प्रकार मानना होगा कि बोधिसत्व अभ्यासवश स्वसान्तानिक संस्कारों से विरक्त हैं। वह इन धर्मों को आत्म-आत्मीय रूप से ग्रहण नहीं करते। वह दूसरों के लिये करुणा-लक्षणा अपेक्षा की वृद्धि करते हैं और इस अपेक्षा के कारण सहस्रों दुःख उद्वहन करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। [१९२] दो शब्दों में एक प्रकार के सत्व होते हैं जो अपनी उपेक्षा करते हैं और दूसरों के सुख में सुखी और दुःख में दुःखी होते हैं। उनके लिये परहित-साधन स्वहित-साधन है। श्लोक में वर्णित है कि "हीन उन उन उपायों से स्वसन्ततिगत सुख की प्रार्थना करता है। मध्य दुःख- निवृत्ति चाहता है, सुख नहीं चाहता क्योंकि सुख दुःखास्पद है । श्रेष्ठ स्वसन्ततिगत दुःख से दूसरों का सुख और उनके दुःख की अत्यन्त निवृत्ति पाहता है क्योंकि वह दूसरों के दुःख से दुःखी होता है।" २ यह परमार्थ के अनुसार है। १ एकोत्तर, ४, १, परिनिर्वाण ३, २४, नंजिओ ११७७, ८, ५ (किओकुग) में वह मत व्यक्त है।-औधिसत्व की परार्यचर्या, कोश, ४. ३ ए---क्षुद्रशील के पुद्गल बोधिस्य में प्रतिपन्न नहीं हो सकते, ७. ३४-बोधिसत्व दूसरों को कैसे आत्मवत् समझता है, बोधि- चर्यावतार, ८. हम श्लोक का उद्धार कर सकते हैं: 1