पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/७४

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश के किसी लोक में उपपन्न पुद्गल प्रथमध्यानभूमिक चक्षुर्विज्ञानधातु (८.१३) को सम्मुख कर सकता है (सम्मुखीकुर्वाणः) : वह चक्षुर्धातु के समन्वागम का प्रतिलाभ नहीं करता, वह पहले से ही समन्वागत है; (बी) जो पुद्गल तीन ऊर्ध्व ध्यानों में से किसी से प्रच्युत होता है और अधर भूमि में उपपद्यमान होता है। ३. उभय से असमन्वागत पुद्गल उभय के समन्वागम का प्रतिलाभ करता है: जो पुद्गल आरूप्यधातु से च्युत होता है और कामधातु में या प्रथम ध्यान (ब्रह्मा लोक) में उपपन्न होता है। हमने अब तक कारिका में प्रयुक्त 'लाभ 'शब्द को 'प्रतिलम्भ' के अर्थ में लिया है किन्तु उसका अर्थ 'प्राप्ति' (२.३६ वी) भी हो सकता है। अत: यह प्रश्न है: जो चक्षुर्धातु से समन्वागत है क्या वह चक्षुर्विज्ञानधातु से भी समन्वागत होता है ? चार कोटि संभव हैं : (ए) तीन ऊर्ध्व ध्यान के किसी लोक में उपपन्न पुद्गल अवश्यमेव चक्षुर्धातु के समन्वागम का प्रतिलम्भ करता है किन्तु वह चक्षुर्विज्ञानधातु के समन्वागम का प्रतिलाभ तभी करता है जब वह प्रथमध्यानभूमिक चक्षुर्विज्ञानधातु को सम्मुख करता है; [७३] (वी) कामधातु का वह पुद्गल जिसने कललादि अवस्था में चक्षुरिन्द्रिय का प्रतिलाभ नहीं किया है या जो विहीनचक्षु हैः वह अन्तराभव-काल में (३.१४) या प्रति- सन्धि-काल में प्रतिलब्ध चक्षुर्विज्ञानधातु से समन्वागत रहता हैं। (सी) काम धातु का वह पुद्गल जिसने चक्षुरिन्द्रिय का प्रतिलम्भ किया है और उसकी हानि नहीं की है, जो पुद्गल प्रथम ध्यानलोक में उपपन्न हुआ है, जो पुद्गल तीन ऊर्ध्व ध्यान के लोकों में से किसी लोक में उपपन्न हो, प्रथमध्यानभूमिक चक्षुर्विज्ञानधातु का सम्मुखीभाव करता है : यह तीन प्रकार के पुद्गल चक्षुर्धातु और चक्षुर्विज्ञानधातु से समन्वागत होते हैं; (डी) इन आकारों के सत्त्वों के अतिरिक्त सत्त्व, आरूप्योपपन्न सत्त्व, चक्षुर्वातु और चक्षुर्विज्ञानधातु से असमन्वागत होता है । चक्षुर्धातु और रूपधातु, चक्षुर्विज्ञानधातु और रूपधातु, श्रोत्रधातु और शब्दधातु आदि के सहवर्तमान अथवा असहवर्तमान, प्रतिलम्भ और समन्वागम का अभ्यूहन यथायोग होना चाहिए। द्वादशाध्यात्मिका हित्वा रूपादीन् धर्मसंज्ञकः । सभागस्तत्सभागाश्च शेषा यो न स्वकर्मकृत ॥३९॥ १८ धातुओं में कितने आध्यात्मिक और कितने वाह्य हैं ? ३९ ए-बी. रूपादि को वर्जित कर १२ आध्यात्मिक है।' १ द्वादशाध्यात्मिका रूपादिवाः [व्या० ७४.२१] विभाषा, १३८, १३. आध्यात्मिक और बाह्य धर्मों का भेद त्रिविध है: १. सन्तान की दृष्टि से भेद : जो धर्म स्वात्मभाव में पाए जाते हैं वह आध्यात्मिक है, जो पर में पाए जाते हैं और जो असत्वाख्य (१.१० वी) हैं वह बाह्य है। २. आयतन की दृष्टि से भेद : जो आयतन चित्त-चत्त के आश्रय हैं वह आध्यात्मिक हैं;