पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८३

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चक्षुराभासगत) मानेणेति नाश्रयभावयोगेनेति दर्शयति । यथा सूर्यो दिवसकर इति । यथा सान्निध्यमात्रेण अभिधर्मको ५. 'चक्षुर्विज्ञान देखता है' इस पक्ष के कतिपय वादी अर्थात् वात्सीपुत्रीय आक्षेप करते हैं : यदि चक्षुरिन्द्रिय देखता है तो वह अन्य दृष्टि-क्रिया क्या है जिसे आप इस क्रिया के कर्ता इस इन्द्रिय की बताते हैं? यह अचोद्य है। यया आप कर्ता और क्रिया के भेद को विना स्वीकार किए मानते हैं कि विज्ञान जानता है (विजानाति) उसी प्रकार हम कहते हैं कि चक्षु देखता है। ६. एक दूसरे मत के अनुसार अर्थात् धर्मगुप्तों के अनुसार चक्षुर्विज्ञान देखता है किन्तु क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय इस विज्ञान का आश्य है इसलिए कहते हैं कि चक्षु देखता है । यथा लोक में कहते हैं कि घंटा नाद करता है क्योंकि यह नाद का आश्रय है। किन्तु इस नियम के अनुसार यह भी कहना चाहिए कि चक्षुरिन्द्रिय जानता है (विजानाति) क्योंकि चक्षुर्विज्ञान का यह आश्रय है। नहीं। क्योंकि लोक में दर्शन चक्षुर्विज्ञान के अर्थ में रूढ़ है। वास्तव में जब यह विज्ञान उत्पन्न होता है तव कहते हैं कि 'रूप दृष्ट है', यह कोई नहीं कहता कि रूप विज्ञात है । और विभाषा (९५, २) में भी यही अर्थ अभिहित है : 'दृष्ट' उसे कहते हैं जो चक्षुरिन्द्रिय से संप्राप्त है, जो चक्षुराभासगत है (चक्षुः संप्राप्त और विज्ञान से अनुभूत है । अतः लोक में कहते हैं कि चक्षु देखता है क्योंकि यह देखने वाले चक्षुर्विज्ञान का आश्रय है; यह नहीं कहते कि यह जानता है क्योंकि चक्षुर्विज्ञान की क्रिया दर्शन है, न कि विज्ञान । दूसरी ओर जब कहते हैं कि विज्ञान जानता है तो उनका यह अर्थ नहीं होता कि यह एक विज्ञान के आश्रय-भाव के योग से जानता है जिस तरह कहते है कि चक्षु देखता है क्योंकि यह चक्षुर्विज्ञान का आश्रय है। हम जानते हैं कि विज्ञान सान्निध्यमात्र से जानता है, यह स्वयं विज्ञान है। यथा कहते हैं कि सूर्य दिवसकर है।' [८६] सौत्रान्तिक मत--यह निर्व्यापार है। सूत्र में उक्त है कि "चक्षु और रूप कारण चक्षुर्विज्ञान उत्पन्न होता है" : न कोई इन्द्रिय है जो देखती है, न कोई रूप है जो देखा जाता है; न कोई दर्शन-क्रिया है, न कोई कर्ता है जो देखता है; हेतु-फलमान है। अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार के लिए उपचार करते हैं : "चक्षु देखता है, विज्ञान जानता है।" किन्तु इस उपचारों में अभिनिविष्ट न होना चाहिए। भगवद्-वचन है कि जनपद- निरुक्ति में अभिनिवेश न करो, लोक-संज्ञा का अतिसरण न करो।' भाष्य-विज्ञानं तु सान्निध्यमात्रेण यथा सूर्यो दिवसकर इति । व्याख्या विज्ञानं तु सांनिध्य- सूर्यो दिवस फरोतोति उच्यते तथा विज्ञान विशानातीत्युच्यते । कस्मात् । लोके तथा सिद्ध- अयवा : "लोक में प्रचलित संशो का त्याग इस कारण गहीं करना चाहिए कि वह असा यस्तु है । मा० ८३.३] "जनपदनिरुक्तिं नाभिनिसित संज्ञा नातिवादेत् । (मध्यम ४३, १८, (संयुक्त, १३, १२) १ मिन, ३.२३० से तुलना फीजिए: जनपद-निरुतिं नाभिनिवेसेय्य समज नातिधावपमा संयुत्त, ४.२३०६ म च लोकस्य