पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८८

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश [९२] २. संघात परमाणु से अन्य नहीं हैं। यह वही परमाणु हैं जो संघात की अवस्था में स्पृष्ट होते हैं यथा उनका रूपण होता है (१.१३) । (संघाते स्पृश्यन्ते यथा रूप्यन्ते।) अतः इसका निपेय करना कि परमाणु स्पृष्ट होते हैं और यह स्वीकार करना कि संघात स्पृष्ट होते हैं अयुक्त है। ३. यदि आप परमाणु के दिग्भागभेद की कल्पना करते हैं तो स्पृष्ट और अस्पृष्ट परमाणु के साक्यत्व का प्रसंग होता है। यदि आप इसका निषेध करते हैं तो हम नहीं देखते कि स्पृष्ट परमाणु का भी साश्यत्व क्यों हो।' विनिर्माणादिभिस्तुल्यविषयग्रहणं मतम् । चरमस्याश्रयोऽतीतः पंत्रानां सहजश्त्र लैः॥४४॥ (अनुवादक का नोट) यह संघभद्र का प्रधान व्याख्यान है। न्यायानुसार, १.४३ सी-डी (फ़ोलिओ ४३ ए १७) : भदन्त कहते हैं कि "परमाणु स्पर्श नहीं शरते; उपचार से कहते हैं कि वह स्पर्श करते हैं, क्योंकि उनका नैरन्तर्येण अवस्थान है।" सौत्रान्तिक (अर्थात् वसुबन्धु) यह सूचित करते हुए कि यह सुष्ठु बाद है कहते हैं कि "यह वाद सुष्ट है । अन्यथा परमाणु सान्तर होंगे। यह सान्तर आकाशधातु हैं । अतः परमाणुओं की (एक दूसरे के प्रति) गति को कौन प्रतिबद्ध करेगा? हम मानते हैं कि वह सप्रतिघ हैं।" भदन्त के इस मत का न अभिनन्दन करना चाहिए न उसकी गहीं करनी चाहिए। केवल इसकी परीक्षा होनी चाहिए कि स्पर्श के विना सान्तर का अभाव कैसे हो सकता है: युक्ति के स्पष्ट न होने से इस वाद का समझना कठिन है । यदि यह कहते हैं कि परमाणुओं में सान्तर का सर्वथा अभाव होता है और यह कभी मिश्रित नहीं होते तो उनका सावयव होना आवश्यक है। यह अयथार्थ मत ह । पुनः यदि 'निरन्तर का अर्थ 'बिना अन्तर' के (अनन्तर) है तो परमाणु कसे स्पर्श नहीं करते ? अतः 'निरन्तर' शब्द का अर्थ 'सांनिध्य । 'निस्' उपसर्ग का अर्थ 'निश्चय है। क्योंकि निश्चित रूप से अन्तर है इसलिए परमाणु निरन्तर हैं, 'अन्तरों के साथ हैं : यथा निर्दहति "वह जलाता है" अथवा "निस्' उपसर्ग का अर्थ 'अभाव ह। परमाणु 'निरन्तर' कहलाते हैं क्योंकि उनके बीच कोई परमाणु के परिमाण का स्पष्ट रूप नहीं है। जब महाभूत के परमाणु एक दूसरे के सानिध्य में विना अन्तर के उत्पन्न होते हैं तो उपचार से कहते हैं कि वह स्पर्श करते हैं। यदि भदन्त का यह अर्य है तो हम उसका अभिनन्दन करते हैं। .. १ संघभद्र इस परिच्छेद को उद्धृत करते हैं (सौत्रान्तिक कहता है कि "यदि तुम मानते हो ....) और पुनः कहते हैं : यह यथार्थ नहीं है। "सावयवत्व" 'दिग्भाग-भेदत्व' यह एक ही भाव के लिए दो शब्द हैं। जब कोई कहता है कि 'परमाणु निरवयव' है तो इसी से यह भी उक्त होता है कि इसका दिग्भागभेद नहीं हो सकता। आप इस विषय में संदिग्ध कसे हो सकते हैं और यह कैसे कह सकते हैं कि "यदि आप दिग्भाग-भेद की कल्पना करते हैं.. क्योंकि परमाणुओं का यह भाग नहीं हो सकता तो वह स्पृष्ट कैसे हो सकते हैं? हमने बताया है कि स्पर्श समिना हो सकता है या एकदेशेन हो सकता है । अतः परमाणु जिसका दिग्भागभेद नहीं हो सकता. स्पृष्ट नहीं हो सकता । अतः आप यह कैसे कह सकते हैं कि 'यदि तुम दिग्भागभेद का निषेध करते हो तो इसमें कोई दोष नहीं है कि परमाणु स्पृष्ट होते हैं।"-अतः परमाणु 'निरन्तर' कहलाते हैं क्योंकि उनके बीच परमाणु के परि माण का कोई स्पष्ट रूप नहीं है।" २.२२ और भूमिका देखिए। इस सारे विवाद पर संधभन, ७, डाकुमेण्ट्स आफ अभिधर्म देखिए।