पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/८९

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अभिधर्मकोश क्या हम को यह मानना चाहिए कि इन्द्रिय आत्मपरिमाणतुल्य विषय का ही ग्रहण करते हैं-यदि हम यह मानते हैं कि पर्वत के समान महत् अर्थ का सकृत् ग्रहण भ्रम से होता है, तो यह ऐसा इसलिए लक्षित होता है क्योंकि हम पर्वत के प्रदेशों को आशुवृत्या देखते हैं: [९३] यथा अलात चक्र का ग्रहण होता है। --अथवा इन्द्रिय निरपेक्षभाव से आत्म- परिमाणतुल्य और स्वपरिमाण के अतुल्य अर्थ का ग्रहण करते हैं ? ४४ ए-बी. प्राणादि तीन इन्द्रिय तुल्य परिमाण के विषय का ग्रहण करते हैं।' इन्द्रिय के नियतसंख्यक परमाणु विषय के समान संख्यक परमाणुओं को प्राप्त कर विज्ञान का उत्पाद करते हैं। प्राण, जिह्वा, और काय के लिए ऐसा समझना चाहिए। किन्तु चक्षु और श्रोत्र के लिए कोई नियम नहीं है। कभी विषय इन्द्रिय से स्वल्प होता है, जब बालाग्र को देखते हैं; कभी इन्द्रियतुल्य होता है, जब द्राक्षाफल का दर्शन करते है। कभी इन्द्रिय से बड़ा होता है, जब उन्मिषितमात्र चक्षु से पर्बत को देखते हैं। शब्द के लिए यही है : कदाचित् मशक शब्द सुनते हैं, कदाचित् मेघ शब्द सुनते हैं इत्यादि । मन इन्द्रिय के लिए जो अरूपी है प्रश्न नहीं होता। यहां इन्द्रियसम्बन्धी कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं। १. विविध इन्द्रियों के परमाणुओं का सन्निवेश कैसे होता है ? चक्षु के परमाणु अजाजीपुष्प (कालजीरकपुष्प) के समान चक्षुगोलक पर अवस्थित होते हैं अर्थात् एक तल में अवस्थित होते है ! वह अच्छ वर्ण के चर्म से अवनद्ध होते हैं जो उनके प्रसर्पण में प्रतिबन्ध है। एक दूसरे मत के अनुसार वह एक गुटिका के तुल्य गंभीर संनिविष्ट हैं; स्फटिक के तुल्य अच्छ होने से वह दूसरे को अन्तरित नहीं करते। श्रोनेन्द्रिय के परमाणु भूर्ज के अभ्यन्तर में अवस्थित हैं। कर्ण के अभ्यन्तर में भूर्जपत्र के वर्ण और आकार का भूर्ज पाया जाता है। प्राणेन्द्रिय के परमाणु घाटा (नासापुटी) के अभ्यन्तर में अवस्थित होते हैं। [९४] यह पहले तीन इन्द्रिय मालावत् अवस्थित हैं।' जिह्वेन्द्रिय परमाणु अर्धचन्द्र के आकार में जिह्वा के ऊर्ध्व तल पर अवस्थित हैं ।जिह्वा के मध्य में वालाग्र मात्र प्रदेश इन्द्रिय के परमाणुओं से अस्तृत (व्याप्त नहीं है। मागम में यह मत व्यक्त किया गया है। २ हम इस पंक्ति का उद्धार कर सकते हैं: प्राणादिभिस्त्रिभिस्तुल्यविषयग्रहणं मतम् । विभापा, १३, ८ के अनुसार। पहला मत्त सर्वास्तिवादियों का है। १ मालावदवस्थित मंडलेन समयंबल्यावस्थित ध्या० ८६.७] भाष्य में 'फिल' है। सामान्यतः रसुगा 'दिल द से वैभाषिकों के सदोष मत को घोषित करते है किन्तु यहां व्यारया कहती हैं : आगमसूचनार्थः किल शब्दः । [व्या० ८६.८] २