पृष्ठ:अभिधर्म कोश.pdf/९०

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प्रथम कोशस्थानः धातुनिर्देश ७५ कायेन्द्रिय के परमाणु काय के संस्थान के होते हैं। स्त्रीन्द्रिय के परमाणु भेरी तुल्य होते हैं। पुरुपेन्द्रिय के परमाणु अंगुष्ठतुल्य होते हैं। २. चक्षुरिन्द्रिय के परमाणु सर्वात्मना सभाग (१.३९) हो सकते हैं; सर्वात्मना तत्सभाग हो सकते हैं; कोई सभाग, कोई तत्सभाग हो सकते हैं। श्रोत्र, घ्राण और जिह्वेन्द्रिय के लिए भी यही है। किन्तु कान्द्रिय के परमाणु सव सभाग नहीं होते; जव प्रतपन नरक (३.५९) की ज्वाला से शरीर व्याप्त होता है तव भी अनन्त परमाणु तत्सभाग होते हैं क्योंकि सिद्धांत कहता है कि यदि काय के सब परमाणु एक ही समय क्रियाशील हों तो काय विशीर्ण हो जाय। ३. ऐसा नहीं होता कि विज्ञान का उत्पाद इन्द्रिय के एक परमाणु और विषय के एक परमाणु से हो। वास्तव में पांच प्रकार के विज्ञान के ५ आश्रय और आलम्बन संचित होते है। इससे यह परिणाम निकलता है कि परमाणुओं का ग्रहण नहीं होता; इसलिए उन्हें 'अनिदर्शन' कहते हैं (१.२० ए-वी, ४.४ से तुलना कीजिए)। पहले पांच विजानों के विषय उनके सहभू हैं। पप्ठ विज्ञान का विषय उसके पूर्व का, सहोत्पन्न या अपर है। दूसरे शब्दों में यह अतीत, प्रत्युत्पन्न या अनागत (१.२३) है। विज्ञानों के आश्रय के सम्बन्ध में भी क्या ऐसा ही है ? [९५] ४४ सी-डी. पप्ठ विज्ञान का आश्रय अतीत है। प्रथम पांच का आश्रय सहन . भी है। १

मनोविज्ञान का एकमात्र आश्रय मनोधातु है अर्थात् अतीत विज्ञान है (१.१७) । ५ विज्ञानकायों का माश्रय उनका सहज भी है अर्थात् यह विज्ञान के पूर्व का और सहज दोनों है । वास्तव में ५ विज्ञानकायों का आश्रय द्विविध है :१. चक्षुरादि इन्द्रिय जो विज्ञान का सहभू है ; २. मन-इन्द्रिय जो विज्ञानोत्पत्ति के क्षण में अतीत होता है । अत: ५ विज्ञानकायों के दो आश्रय होते हैं । प्रश्न है कि क्या चक्षुर्विज्ञान का आश्रय इस विज्ञान का समनन्तरप्रत्यय (२.६२) भी है। चार कोटि हैं : १. चक्षु जिसका केवल आश्रयभाव है। २.वेदनादि (२.२४) अतीत चतसिक धर्मवातु : यह केवल समनन्तरप्रत्यय है; ३.अतीत विज्ञान या मनस् जो आश्रय और समनन्तरप्रत्यय इन उभय लक्षणों से युक्त है; ४. कोटित्रयनिर्मुक्त अन्य धर्म थोत्रविज्ञान, प्राण०, जिह्वा० और कायविज्ञान के लिए भी ऐसा ही है । मनोविज्ञान का पूर्वपादक है : मनोविज्ञान का जो आश्रय होता है वह इस विज्ञान का सदा ममनन्तरप्रत्यय - १ चरमस्याश्रयोजीत; पंचानां सहजश्च तैः॥ [व्या० ८६.११]