पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/१६०

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१५६ अमर अमिलापा "छप्पर, द्वार घूमते दीखते थे। श्रव की बार वह कुछ न बोल सकी। हरनागयण और क्रुद्ध होकर वोले-"ज़िन्दी है, कि भर गई ? मेरी बात का जवाब दे !" भगवत्ती ने रोकर कहा-"मैं तो कहीं नहीं गई मैया!" "तू कहीं भी नहीं गई ? सच कहती है ? अच्छा, इस चिट्ठी में क्या लिखा है?" अय तो भगवती का चेहरा पीला पड़ गया। उसका सारा शरीर पसीने से शराबोर होगया। वह चिट्ठी को हाथ में लिये नीची दृष्टि किये खड़ी रही। हरनारायण ने कहककर कहा- "वोल-इस चिट्ठी में क्या है ?" "मुझे क्या ख़बर?" "तुझे कुछ खबर नहीं ? इसमें क्या लिखा है? पद तो "सही" भगवती चुपचाप नीचा सिर किये खड़ी रही। हरनारायण ने उसकी गरदन में झटका देकर कहा-"वोल, -तेरी जवान टूट तो नहीं गई ?" भगवती ने रोते-रोते कहा-"मुझे क्या नवर?" अब हरनारायण अपना क्रोध न रोक सके। उन्होंने तड़प- कर दो थप्पड़ उसके मुंह पर दिये, और दाँत फटफटाकर कहा- "अभागिनी कलंकिन ! तेरे ये लच्छन? अच्छा, भीतर तो चल।" भगवती का शरीर सौ मन का होरहा था। हरनारायण 'उसका हाय घसीटकर ले चले । सव से प्रथम उनकी दृष्टि मिठाई