पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

उपन्यास १९७ "नीते-जी यह नहीं होगा।" "तय तू मुझे ज़ोर-जूरम पर मजबूर फरेगी!" "भगवान सहायक है।" "उस दिन तो तू सीधी-साधी मालूम होती थी; थान तो तू पढ़े-बढ़े पण्डितों के कान काटती है।" इतना कहकर राजा साहब ने फिर उसका हाथ पकड लिया । इस यार ज़ोर करने पर भी सुशीला हाय दुदान सफी। उसने बहुत ज़ोर लगाया। 'यन्त में उसने ज़ोर से उनके हाथ में काट खाया। राना साहब ने मरताकर एक लात सुशीला के मारी । लात खाफर यह दूर ना पढ़ी। पर राना भी बाघ की तरह उस पर टूट पड़ा । बढ़ी देर तक येचारी बालिका रस नर-पशु के पंजे से छूटने की चेष्टा करती रही, पर उस पापिष्ट से उसकी कुछ भी पार म वसाई । इस बार उसने अवसर पाकर ज़ोर से उसकी नाक पर दाँत गाद दिये । दर्द से राजा चीन उठा। वह छूटने को छट- पटाने लगा। सुशीला उसके छूटते ही दर्वाजा नाँधकर बाहर भागी। याहर बंगल था। वह असहाया यालिका किससे मागं पूछे ? नाय कहाँ ? पद-पद पर विपत थी। पीछे राना का भय और श्रागे अन्धकार का भयकर मुख-गहर! मार्ग पूछने में भय था। फिर वहाँ कोई मनुष्य था भी नहीं। वह चुपचाप पुष तरफ को तेजी से चलने लगी। अन्त में चलते-चलते वह एक बड़ी सड़क पर आगई। वहां वह एक पत्थर के ढाके के सहारे पीठ लगाकर यह सोचने लगी, कि अब फहाँ नाय ?