तेंतीसवाँ परिच्छेद कुमुद का जेठ रंडुधा या । उसकी स्त्री का देहान्त हुए, दो वर्ष होगये थे। यह व्यक्ति साधारण लिखा-पढ़ा था, और एक कपड़ेवाले की दूकान पर मुनीमगिरी करता था। इस बार कुमुद के घर में आते-ही इसकी कुदृष्टि उस पर पड़ी। जय-जव कुमुद पर श्रन्याचार होता-वह टमका पन लेफर सब से लड़ता। पर उसे कुमुद से मिलने, यात करने और अपनी अभिसन्धि प्रकट करने का अवसर नहीं मिलता था। एक दिन का ज़िक है। उस दिन कोई पर्व था। कुमुद को छोड़कर सभी पर्व नहाने गये थे। घर में कोई स्त्री न थी। तब वह साहस करके भीतर घुस आया। उसे देखफर कुमुद सहम गई, पर बोली नहीं। उसने कहा- "यहू, तेरे ऊपर चढा जुत्म होता है, यह तो मुझसे सहा जाता नहीं।" कुमुद जेल से बोलती न थी-वह चुपचाप खडी रही। उसने फिर कहा-"इस तरह कय तक चलेगा? तू का तक यह सब-कुछ सहेगी!" कुमुद को बोलना पड़ा। उसने कहा-"नव ईश्वर ने यह दिन दिया है, तो समी- कुछ सहना पड़ेगा।" 88
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