पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२१४

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अमर श्रमिलापा "मैं तुम से एक बात कहना चाहता हूँ।" "कहिये १५ "चल कहीं भाग चलें, मैं तुझ वान से ज्यादा करके स्गा; श्रमी सारी उन्न पड़ी है, इस तरह थोड़े ही कट नायगी?" कुमुद्र के सारे शरीर से पसीना बह निकला ! उसने कपित स्वर-से कहा-"कृपा कर श्राप यहाँ से धमी चले जाइये, ऐसी वात कमी जबान पर न लाना!" "क्यों, ऐसा क्या होता नहीं ?" "पाप चले जाइये !" "क्या भाई साहब मुझ से ज्यादा सुन्दर ये?" "मैं कहता हूँ, आप यहाँ से चले नाचें ।" "देवा घौरत, यह मेरा घर है। मैं कहाँ चला बाई ? तु वता, कि मेरी बात मानती है, या नहीं ?" "मैं आपकी बात पर धिक्कार मेजती हूँ।" "अब तू इस घर में न रह सजेगी।" "ईश्वर के राज्य में मेरे लिये बहुत ठौर है।" "मैं तुझे बदनान कर दूंगा।" "हाय ! गरीब अनाय स्त्री को सताकर आप क्या लेलेंगे?" "पर तुझे राजी से या लोर से मेरी बात माननी पड़ेगी।" "प्राण रहते यह नहीं होगा!" "और नो मैं जबर्दस्ती करूं?"