२३० अमर अभिलाषा सिपाही ने निराशा का भाव दिखाते हुए कहा-"चौधरी साहव, देखा आपने? वे तो हाथ भी नहीं रखने देते।" चौधरी साहब चुपचाप सोचने लगे। सिपाही महाशय बोले -"यह तो कहो, रक्रम कितनी मिलेगी" "जो कुछ भी तय होजाय।" "पाँच-सौ रुपये का मामला है।" चौधरी साहब बोले-"अनी-इतनाउसके पास कहाँ है ?" "ह क्यों नहीं--गाँव की सब से तकड़ी आसामी है।" "दावले भाई-दर के ढोल सुहावने लगते हैं।" "तो तुम जानो।" "देखो सन्त्री, बूढे की सफ़ेदी की लान रखोगे, तो बड़ा नस पानोगे।" अन्त में दो सौ रुपये पर मामला वय हुआ। सिपाही एक तरफ़ थानेदार को लेगया। वह मिन्नत-खुशामद करता है, हाय जोदता है, और थानेदार साहब तन-तनकर उठते हैं। यही देर में कब्जे में भाये, तब सिपाही ने चौधरी साहब को सामने पेश किया। उन्होंने सामने थाते ही मुफकर सलाम किया । थानेदार ने मुस्करान कहा-"चौधरी साहव, सिर्फ़ तुम्हारे लिहाज़ से यह काम हुमा है; वरना खुदा की असम, हम अपने बाप की भी नहीं सुनते हैं।" चौधरी साहब ने कहा- हुजूर की मेहरबानी है।"
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