पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/२५०

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अमर अभिलाषा . बसन्ती ने होठों में सफर कहा-"धन, मन-बहुत रईस- आदे देखे हैं। कुछ गाँठ में भी है या कोरे रईसजादे है" गोपी ने पास खसककर बसन्ती के पैर दबाने का उपक्रम करते- करते कहा-"पहले ही दिन पचासन गिनवा दूं, तो बात नहीं।" बसन्ती की आँखें चमकने बगी। उसने कहा-"सच ? "गंगा की कसम", गोपी की पूणित आँखें भी धमकीं। "पर सुनो, दस से कम न लूंगा। मामला साफ अच्छा होता है।" बसन्ती हस पड़ी। उसने कहा-"मच्छा, मान नहीं कल । भब तू रास्ता नाप ।' वह स्वयं ही उठ खड़ी हुई । गोपो ने उठने उठने कहा- "मान तो कुछ भी मिना नहीं । कुछ नशे-पानी को तो दिलवामो। गला की कसम, दम निकला जाता है।" "अरे, सुये, वेरा फलेना जलकर खाक हो जावेगा।" इस पर गोपी ने हंसकर जरा ऊँची गर्दन करके कहा-"इस मलो को तुम क्या जानो ! कहो, तो कल एक पुदिया जाऊँ!" "क्यों रे ! क्या सचमुच उसमें शराब से ज्यादा मना है?" "शराब इसके सामने क्या हस्ती रखती है ?" "तो कल एक पुड़िया लाना।". "सामो, फिर एक विद्या मुकामो।" बसन्ती ने एक रुपया फेंककर उसे चले जाने का इशारा किया, और वह चुपचाप पलंग पर जाकर पड़ रही।