पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३४

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88 अमर अभिलापा "होती है, पर इच्छा करने से ही क्या सुख मिल जाता है ?" "यहन ! भाग्य भी तो कुछ चीज़ है ?" "पर तुम क्या मेरे भाग्य पर डाह नहीं खाती ?" "मैं डाह क्यों साऊँगी "अच्छा, तुम्हें भी यदि यह सय मिले तो?" "कैसे ?" "जैसे मुझे मिले हैं।" "किस तरह तुम्हें मिले हैं ?" युवती रुकी । उसके होठ कॉप। उसने कहा-"रूप वेचकर।" वालिका को मानो जोर से चाबुक लगा। वह क्षण-भर को मानो वेहोश होगई । पर फिर, तत्काल सम्भलकर उठी, और पागल की तरह भागी। युवती ने उसे रोकना चाहा, पर वह न रुकी। चौथा परिच्छेद जय वालिका उस युवती के घरसे भागी,तब सीधी अपनी कोठरी में आकर साँस ली। घर में श्राकर, जल्दी से द्वारका कुपडा भीतर से बन्द कर लिया, और चटाई पर पदकर हाँपने लगी। उसके सर में चक्कर, और आँखों में अँधेरा भारहा था। दिल की धड़कन बढ़ गई थी, और वह हॉप रही थी। यह .