पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३५

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उपन्यास
 
३५
 

उपन्यास ३५ सोचने लगी-~"हे भगवान् ! यह क्या सुना? क्या दुनिया ऐसी है ? हाय ! यह चमक और गठ इस तरह मिलते हैं ?" उसे श्रय अपनी माता का स्मरण थाया-और वह फूट-फूटकर रोने लगी। उसके रोम-रोम में भय और चिन्ता भर रही थी। वह विपत्ति की मारी यालिका, इस प्रयाह समुद्र में दूर- उतरा रही थी, कि किसी ने द्वार खटखटाया। खोलकर देखा, तो किराये के लिये, मकान मालिकिन खदी है। जैसे हिरनी चाय को देखकर सहम जाती है, उसी तरह सहमकर अनाया ने वृद्धा को देखा। वृद्धा ने कर्कश स्वर में हाथ आगे बढ़ाकर कहा-"देला, किराया दे, आज-ही का वेग वायदा है ?" वालिफा ने बिल्कुल दवे त्वर से कहा-"चाची ! पान मैं दे जरूर दूंगी, थभी तो दिन ही निकला है। मैं फाम पूरा करके दे आई हूँ, पर अभी मजदूरी मिली नहीं है।" डाइन की तरह एक दम सिर पर गर्नकर बुदिया बोली- "मज़दूरी का क्या मैंने ठेका लिया है ? दो महीने होगये, किराया नहीं दिया ? ला, अभी दे, नहीं तो चोटी पकड़कर याहर निका- खती हूँ।" लड़की प्रार्थना भी न कर सकी। वह अधमरी-सी होकर बुढ़िया की भोर ताकने लगी। दिया ने कहा-"इस तरह मरे यैल-से दीदे क्या निकाली है १ किराया दे!"