पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३४५

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उपन्यास . हाय अकड़ नाते थे, भांखें निकल पड़ती थी, मुंह में माग माते थे, और गले की नसें तनकर रस्सी बन जाती थी। वह चीखती थी, उछलती थी, काँपती थी, बकती थी, और छुट- पटाती थी-इतना, जितना कि वह अपने भाई की श्रमानुपी मार, माता के विषाक्त तिरस्कार, और हृदय के भारी-से-भारी अपमान में भी न रोई थी, न चिल्लाई-उछली थी। यह उसकी अन्तिम घड़ियाँ थीं, और यह मानो संसार की रही-सही यन्त्रणामों की वधी सुची झूठन को चलते-चलाते भोगे जाती थी। कदाचित् इसलिये फि फिर कोई इस विप को खाकर न मरे !!! ऐसी ही दशा थी, बल्कि इससे भी करुण थी। दो-दो धायें उसे पकड़ रही थीं। बार-बार एनेक्शन दिया जा रहा था, पर वह दोनों घायों को दाँतों से काट-काटकर उन्हें विह्वल कर रही थी। ऐसे समय में नौकर ने इत्तला दी। "मेम साहेब, इसका बाप भाया है।" साय ही जयनारायण ने कमरे में प्रवेश किया। यह कुछ देर स्तब्ध होकर मुमूर्ष बेटी को ताकता रहा । रोगिणी ने उसकी तरफ देखा। फिर दोनों हाथ फैलाकर बोली-"लाये हो? लाओ, उसे मुझे दो।" इतना कहकर वह हगत् उठ खड़ी हुई। जयनारायण ने निकट पाकर कहा- "किसको बेटी ?" वाइयों ने पकड़कर वनपूर्वक सुला दिया। -