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पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३४६

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be अमर अमिलापा भगवती ने भीखें निकालकर विद्रप से कहा- "मेरी बच्ची को, जिसे आँखों से एक बार भी नहीं देखा, नहीं प्यार किया ! अरे, कौन माँ इस तरहं बच्चे को हलान करती है। बरे राम ! वह खून में न्हा रही थी । बाप रे! यदि मेरी माँ भी इसी तरह करती, तो मैं इतनी यही कैसे होती? जाओ, जामो, उसे मुझे दो, मैं उसे गोद में लूंगी। वह फिर उठ चली। जयनारायण विलखकर रो उठे। उन्होंने कहा- "मेरी बच्ची, शान्त हो जॉयो । दुख की बात सोचने से दुःख बढ़ता है; फ्रायदा कुछ नहीं होता। इस बड़ी बेटी, तू भगवान् की याद कर, वे ही तेरी व्याघा रंगेहाय" 'इस स्थान पर इस तरह मरना मेरी जाडो बेटी को नसीब हुआ---!!" जयनारायण ने दुहतद सिर में मार लो, "और "सिर पकड़कर घरती पर बैठ गये। रोगिणी पर उसका सर न प्वावह फिर ऐक 'मटका देकर उठ खड़ी हुई । उसने कहा- तुम पापी होमनाये-- 'साये । मैं खुद चलती हूँ--उसे लेकर आऊँगी । श्रोह, यह वहाँ गीली मिट्टी में रखी है, उसकी नस-नस में सदी घुस गई होगी।" भगवती उठकर चली ही थी, कि नसों ने दौडकर उसे पकड़ा; पर वह स्वयं चक्कर खाकर गिर पड़ी। दुर्भाग्य की पात-खाट के पास रखी हुई पिता की छतरी की बोहे की सीजी --