पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/३४७

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उपन्यास रमझी भखि में घुस गई। उसके निकालते ही रत की धारा वह चली। यह धारा थी, या नदी का प्रयाह! तत्काल डॉक्टर ने थापर उपचार शुरू किये, पर यह धारा न रुकी। धीरे-धीरे भगवती की संज्ञा जाने लगी। यह सफ़ेद पद गई और उसके प्रलाप की गति भी धीमी पड़ गई। अन्तिम भण समीप है, यह सभी ने समझ लिया। दॉक्टर ने हताश होकर कहा-"उसे लिटा दो। अब कुछ नहीं हो सकता।" जयनारायण उठ-खड़े हुए, और प्रांत फार-फादकर बेटी को देखने लगे। घाँस से रक्त की धार बारी थी । सारा चेहरा खून में सन गया था। यह रह-रहकर कांपती थी, वह दोनों हाथ ऊपर को उठाये मानो कुछ टटोल रही थी, और मुख से कुछ भस्पष्ट शब्द वदयदा रही थी। धीरे-धीरे उसके हाथ शिथिल होकर गिर पढ़े, और उसकी चेष्टा शान्त होने लगी। टन-टन करके ग्यारह बजे, और भगवती की पर्व-श्वास चलने लगी। जयनारायण कहाँ तक रोते । वे उठे, और उन्होंने उसके सिरहाने बैठकर उसका सिर अपनी गोद में ले लिया। फिर बड़े प्यार से अपने भांचल से उसका रक्त पोंछा, और मुककर उसका माया चूम लिया! भगवती ने आँखें खोल दी। कुन पण फटी-फटी भाखों से पिता को देखती रही। बोलने की चेष्टा की, पर न बोल सकी।