उपन्यास ४७ चम्पा ने बीच ही में काटकर कहा-"और तू भी तो भदों की सांसत भुगत रही है। तेरे भैया की बहू मरते देर न हुई और तेरहवीं को ही सगाई चढ़ गई। परन्तु तू सारी ज़िन्दगी रंडापा भुगता कर-भाभी की जूतियाँ खाया कर बैठी-बैठी भाई के टुकड़े तोड़ा फर, यस।" भगवती एक-दम उदास होगई। उसने उसी भाव में कहा-"यह तो जो होता थाया है, वही होगा। मदर्दी के तो ब्याह होते ही है, हमारा कैसे होसकता है ? नो भाग्य में है वही भोगना पड़ेगा। (आँसू भरफर) चाचानी नीते हैं, वो रोटी भी मिली जाती हैं, पर भाभी तो जैसी रोटी देगी, दीख रहा है। ऐसी-ऐसी सुनाती है कि तुमसे क्या कहूँ-जय देखो, टेदी नज़र । पर फहूँ किससे? जो चाचानी से कहकर भाई को फटकार यतवाऊँ, तो और भी श्राफ़त श्रावे।" चम्पा जोश में बोली-कैसी भात धावे ? घर क्या उसी का है ? तू मौरन अपने चाचा से सय यात कह दिया कर, उसका सब मुक्काम एक ही फटकार में झड़ जाया करेगा। पराये घर की मूलन धी-येटियों पर वोली कसेगी?" भगवती और भी उदास होफर योली-"एफ चार मैंने चाचानी से कह दिया था, तो उन्होंने समझाया, कि यह तो बेचारी आप ही आफत की मारी है-इसे देखकर यहू, तू क्यों कुदा करती है ? सो तव ने चुप होगई, पीछे मुझे तंग करने में कुछ उठान रखा । मेरे लिये कमी शाक नहीं, कभी कर रहे, ५
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