पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५८ अमर अभिलापाः "याह, कसम न दीजिये-" सुशीला के मुख से चीन निकल गई। उसने कहा-"मैंने परखों से कुछ नहीं खाया है।" युवक ने कहा- मैं तुम्हें रुपये दे गया था।" "मैं उतने की मजदूरी विना किये उन्हें कैसे काम में ला सकती थी। "और यदि किरायेवाली को देने पड़ते ?" 'किरायेवाली पर मेरा बस न था, पेट पर तो मेरा वस है।' युवक के नेत्रों में आँसू भर थाये। वह चुपचाप बाहर श्राया-और थोड़ी ही देर में बाजार से कुछ खाने का सामान, लेकर धागया। सामग्री को धरती पर रखकर उसने कहा- "सुशीला, मेरी एक और बहन थी, पर तुमसे बहुत छोटी- उसकी स्मृति ही मेरे लिये संसार में सत्य है, शेप सव असत्य है। मेरे माँ नहीं-पिता हैं, थान मैं सर्व-शक्तिमान् परमेश्वर के समक्ष साक्षी करके कहता हूँ कि तू वैसी ही मेरी बहन हुई । मैं अपनी स्वर्ग-वासिनी माता के प्राणों को भी शपथ खाता हूँ, कि इस जन्म में तु सदा मेरे जीते जी बहन रहेगी । बस, थव दो-पने को भाव की ज़रूरत नहीं। ले, अभी मेरे सामने बैठकर खा । अभी खा।" इतना कहकर युवक बिना ही किसी प्रकार के उत्तर की प्रतीक्षा किये धरती पर बैठ गया, और सुशीला का हाथ पकड़- कर उसने अपने पास बैठा लिया। सुशीला ने आँख फाड़कर देखा । वह कुछ समझ ही या सकी । पर वह न बोली, न रोई, धम-से बैठ गई।