पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/७८

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अमर श्रमिलापा कुद पर्दै गा, पर इन सर्वनाशी हत्यारे नाति-विनों को तो आप देखते ही हैं । यतायो-मेरे बाल-बच्चों का कहीं ठिकाना रहेगा? दाप, मैं फैसा प्रभागा हूँ" रामचन्द्र में सनिक वेज नज़र से उमकी घोर देखते-देखते कहा-"तो फिर पो कहिये, ऐसा करने से आपकी पुत्री को भाग्य नहीं रोकवा-श्रापफी फायरग, आपका उर, आपकी सुषु- सार्जी-रोकती है। इसीलिये थाप कुल दोप कन्या के माम्म 'पर ही लगाना शेफ समझते हैं। बस, एक ही विना सिर-पैर की पात-'बो लिखा है, वह हुए लिमा नहीं रहेगा। यह कर धेने से ही किस्सा रखतम होजाता है, मम्मट मिट जाते हैं। चलो, मखम हुधा ।" अपनारायस अत्यन्त फरण-भाव से अपना ऐसा कटु तिरस्कार सुन रहे थे । रहरहपर उनके मन में घोर आत्म-तानि उत्पा हो रही थी, और उनका मुख रामचन्द्र के सामने न पड़ता था। रामचन्द्र फिर कहने लगे-"यच्या, समझ लीजिये, भाप अस से गिर गये, खून बह निकता । चोट के मारे पहा कट दुमा । इसे आपकी पुत्री देख रही है, पर वह पह कहकर बैठी ही कि पिताजी के भाग्य में गिरना लिखा था, और चोट साना बदा था, श्रस्तु, पड़ा रहने दो-यह उनके पूर्व जन्म के संस्कार का का है, जो पदा है-भोग लेने दो । कहिये, यह यात भापको कितनी अच्छी लगेगी? यह कष्ट तो आपका एकाध दिन में दूर शे जायेगा, पर पुत्री को जीवन-पर्यन्त के दुःख भोगने को पड़े