पृष्ठ:अमर अभिलाषा.djvu/७९

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उपन्यास ७ ९ T रहने देना कितना पुरा है। किन्तु पुत्रियाँ रोज़ गिरती है,मरती हैं, तपती है, दिल्लविताती है, और आप अपनी बड़ी-बड़ी दोनों आँखे खोलकर देखते हैं, कभी-कभी रो भी लेते हैं, पर ऐसा प्रवन्ध नहीं करते, कि उनका गिरना बन्द हो, उनके कलेजे के जन्म मर जायें ! पया यही हिन्दुओं का दया-धर्म है ? जिन हिन्दुओं को अपनी दया पर यहा अभिमान है, सच पूछो, तो उनकी बरायर संसार में कोई कसाई और फर नहीं है। छोटे-छोटे भुनगे, चींटी, मफोड़े, कौवे, कुत्ते-शादि पशुओं के लिये तो तुम्हारे पास दया का भण्डार भर रहा है, पर अपनी सन्तान पर ये जुल्म, कि उनकी उसी पानी पर कुछ भी तरस न खाकर उन्हें ऐसी धुरी मौत मार रहे हो, कि साई गाय को भी न मारेगा। कसाई गाय को एक ही यार में साफ कर देता है-यह येचारी दु.ख से तो छूट जाती है, पर तुम तो एक वर्ष की दूध-पीती कन्यायों को विधवा बनाकर पापों की नदी बहा रहे हो- उन्हें रोममोम में विष पैदा करनेवाले दुःख-सागर में दकेलकर जीवे- श्री दुःखाग्नि में डालकर भून रहे हो, उनके तड़पने को देख- कर पुण्य की उत्पत्ति समझ रहे हो! इतना होने पर भी सुमारा पत्यर का कलेना नहीं पिघलता तुम्हारी छाती पर साँप मही लोट वाता! पान दिन २४ करोड विधषामों की खेप तुम्हारी छाती पर मूंग दल रही है। इनमें से कोई चुपचाप सर्द 'माह भरकर भारत को रसातल पहुंचा रही है, कोई कहार, धीवर, -प्रासाई के साथ मुंह काला करके कुत-घर की नाक कटा रही है,