no अमर अभिलाषा फिर भी हिन्दू-पवित्र हिन्दू !-ऋषि-सन्तान कहलाने की इच्छा रखते हैं। यदि अब भी हमें अपने रक्त-वंश का अभिमान है, तो शर्म है-लाख-लाख शर्म है !" इतना कहते-कहते रामचन्द्र ने ज्वलन्त नेत्रों से जयनारायण की घोर देखा। वे शून्य दृष्टि से उन्हें देख रहे थे। रामचन्द्र फिर बोले- . "अपने बुजुर्गों को तो देखो, बो दीन-दुखियों का धार्तनाद सुनकर भोजन-मनन छोड़ देते थे, उस दुखी-जन का दुःख दूर करके जन-पान करते थे, या लान खो देते थे। हाय! उनकी सन्तान धान ऐसी अधमी होगयी-फरोड़ों विधवाओं की विलयिलाहट और हाहाकार सुनकर भी उन्हें सुख की नोंद आती है ? निनकी छाती पर सिला रक्खी रहे-पाठो-पहर जवान विधवा कन्या चुपचाप कलेजे का खून पिया करे, उसकी आमा फूट-फूटकर रोती रहे, और इन धर्म-धुरियों के हलक में मजे से छत्तीसों व्यान-सरक जायें ! पहचानने से प्रथम ही जिसका एक-मान बीवन का आधार जगत् से उठ बाप-यह रोग, अभागिनी तुम्हारे ही पाप से, अंधेरी दुःख-भरी दुनियाँ में चकी पीस-पीसकर, कुत्ते-भी-न-खाय-ऐसे सूखे टुकड़े खाकर दिन काटे -सुधर-भी-न-हे-ऐसी सदी मैली कोरी में है। बीमार पड़ने पर, विना सहाय, भूखी-प्यासी सहप-सदपकर मर बाय? - पर, तुम्हारे पत्थर-हृदय टस से मस न हो! उनके लिये तुम्हारे हृदप में रसी-भर सहानुभूति नहीं रही। प्रवर्मियों
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