उपन्यास ८१ मुसलमान, ईसाई पौर कसाई भी जिन पर तरस खाते हैं, पत्थर- हृदय नल्लाद को भी जिन पर फरणा हो थाती है-उन दुखि- याओं पर तुम दयालुओं (दया के अभिमानियों) को तनिक भी दया नहीं थाती ? जो लोग अपने को अहिंसा-धर्नधारी समन्न्ते रहे हैं, जो लोग दयावान् ऋषि-मुनियों की सन्तान हैं, उन्हीं की दया का यह इत्य है। यह उन्हीं की सभ्यता का नमूना है। क्या यह सब घोर पाप नहीं है ? ऐसे अत्याचार क्या दूसरी जाति में बता सकते हो? कसाई को सब से अधिक क्रूर, निदयो कहकर तुम घृणा करते हो, गाली देते हो, धिक्षारते हो, और उनका लुंह नहीं देखना चाहते । पर सच जानो, वह हम से अधिक घृणित नहीं हैं। विना सींगों की गाय पर अपनी बहन-बेटियों पर, उनकी धुरी कदापि नहीं उन्ती! हिंसक पशु- पक्षी, सिंह, भेड़िया-यादि भी अपने स्त्री-बच्चों पर दया करते है। त्रियों को सव ने अवघ्य माना है। जाली जाति भी स्त्री को नहीं सताती, पर हिन्दू-जाति के सपूत उन्हीं का गला घोट- कर स्वर्ग का द्वार खोल रहे हैं। छीः छी: !" इतना कहकर रामचन्द्र चुप हो रहे । उत्तेजना के मारे उनका सारा शरीर काँप रहा था । ललाट पर पसीना चू रहा था। आँखों में चिनगारियाँ निकल रही थीं। नयनारायण चुपचाप जमीन में नज़र गाढ़े बैठे ये। दोनों चुप, किसी की भी जीम नहीं खुलती थी। कुछ देर यहरकर रामचन्द्र पोले-"अच्छा, अब चलता हूँ। मैंने ऐसी कड़ी-कदी बात कहकर आपका जी दुखाया है, इसके लिये क्षमा
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