पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/१२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
९६
अयोध्या का इतिहास

राजा अंबरीष भगवान के बड़े भक्त थे। एक समय द्वादशी के दिन महाराज के यहां दुर्वासा जी आये। महाराजा ने नमस्कार विनय के अनन्तर भोजन के लिये प्रार्थना की। ऋषि जी ने कहा कि स्नान कर आवें तो भोजन करें। इतना कहकर स्नान को गये। परन्तु उस दिन द्वादशी दो ही दंड थी। राजा ने विचार किया कि त्रयोदशी में पारण न करने से शास्त्राज्ञा उल्लंधित होगी। तब ब्राह्मणों ने कहा कि किंचित्-मात्र जल पी लीजिये। राजा ने ऐसा ही किया। दुर्वासा जी आये और अनुमान से जाना कि इन्होंने जल पिया है। फिर तो अत्यन्त क्रोध करके अपनी जटा को भूमि में पटक के महाविकराल “कालकृत्या" उत्पन्न करके उससे कहा कि "इस राजा को भस्म करदे"। इतने पर भी श्री अम्बरीष जी हाथ जोड़, दुर्वासा की प्रसन्नता की अभिलाषा में खड़े ही रहे । "श्री-सुदर्शनचक्र जी" जो श्रीप्रभु की आज्ञानुसार राजा की रक्षार्थ सदा समीप ही रहा करते थे, दुर्वासा के दुःखदायी क्रोध से दुःखित हो के उस कालाग्नि कृत्या को अपने तेज से जला के राख कर दिया और ब्राह्मण की ओर भी चले । यह देख दुर्वासा जी भागे और चक्रतेज से अत्यन्त विकल हुये।

महाभारत में लिखा है कि राजा अम्बरीष अमित पराक्रमा थ। उन्होंने अकेले दस हजार राजाओं के साथ युद्ध किया था और समस्त पृथ्वी पर अपना आधिपत्य फैलाया था।

लिङ्ग पुराण में लिखा है कि महाराजा अम्बरीष अत्यन्त विष्णुभक्त थे; राज्य भार मन्त्रियों को देकर उन्होंने बहुत दिनों तक विष्णु भगवान की आराधना की! भगवान विष्णु उनकी भक्ति की परीक्षा और वर देने के लिये इन्द्र का रूप धारण कर उनके समीप उपस्थित हुये। परन्तु विष्णुभक्त अम्बरीष ने इन्द्र से कोई भी वर नहीं माँगा और बोले, मैं न तो आपको प्रसन्न करने के लिये तपस्या करता हूँ और न मैं आप का दिया हुश्रा वरही चाहता हूँ आप अपने स्थान को जाइये !