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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/१६६

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अयोध्या के गुप्तवंशी राजा

विनोद चाहता है तो उसे समयानुकूल कविता सुनाते हैं। ऐसे अवसरों के लिये ऋतुसंहार के भिन्न-भिन्न खंड रचे गये थे। यहीं उस ज्येष्ठ महा-राजकुमार का जन्म हुआ था जो पीछे कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के नाम से सम्राट हुआ और उसी अवसर के स्मरणार्थ सात सर्गों में कुमार सम्भव (कुमार का जन्म) काव्य रचा गया। चन्द्रगुप्त झूँसी में ठहरा हुआ था; तब कालिदास को पुरूरवस और उर्वशी की कथा की सुध आई और विक्रमोर्वशी नाटक रच डाला गया। नाटक के नाम के आदि में विक्रम शब्द अपने आश्रयदाता के नाम को अमर करने के लिये जोड़ा गया।

और आर्य राजाओं की भाँति, गुप्तराजा भी मृगया के बड़े व्यसनी थे। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के एक सिक्के में राजा वान से एक सिंह मार रहा है। अभिज्ञानशाकुन्तल का नायक दुष्यन्त जिस बन में शिकार खेलने जाता है उसमें बनैले सूअर (वराह), अरने (महिष) और जंगली हाथी भी हैं। यह स्थान आजकल के बिजनौर प्रान्त के उत्तर का हिस्सा है। यहीं मालिनी (आजकल की मालिन) गढ़वाल की पहाड़ियों से निकल कर घूमती हुई गंगा में गिरती है। बूढ़ी गंगा के तट पर हस्तिनापूर यहाँ से ५० मील है। जब हस्तिनापूर जाने लगता है तो राजा दुष्यन्त शकुन्तला को एक अंगूठी देता है जिसके नगीने पर उसका नाम खुदा हुआ है। गुप्तकाल में जो देव नागरी लिपि प्रचलित थी उसमें दुष्यन्त में पाँच अक्षर होते हैं, द ष य न त। बिदा होते समय नायक शकुन्तला से कहता है कि प्रतिदिन एक-एक अक्षर गिनना और पाँचवें दिन जब पाँचवाँ अक्षर गिनोगी तो तुमको हस्तिनापूर ले जाने के लिये सवारी आयेगी। कालिदास का भौगोलिक ज्ञान बहुत ठोक रहता है और राजा का कहना तभी ठीक उतरेगा जब कन्व का आश्रम बिजनौर को पहाड़ियों में माना जायगा। इसी आश्रम के पास चन्द्रगुप्त-द्वितीय अपने राजकवि के साथ अहेर को गया था। राजा धन्वी तो था ही, बड़ा बलवान भी था। वह हाथी की भाँति पहाड़