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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/१९४

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अयोध्या का इतिहास


यस्मिन् कृते मखे यामि सदेहस्त्वां दिवस्पते।
ततः स भगवान् दभ्यो क्षणम्मीलितलोचनः॥
सूर्यप्रमा मण्डलतो ब्राह्मणाः सप्त तत्क्षणात्।
आविरासन् ब्रह्मविदो वेदवेदाङ्गपारगाः॥
ततस्तानाह भगवान् विप्रान्यज्ञान्तकर्मणि।
युष्माकं सन्ततिभूमौ यथा स्यादनपायिनी॥
पावनार्थञ्चलोकानान्तथा नीतिर्विधीयताम्।
ततस्ते जनयामासु र्मनसा तनयाञ्छुभान्॥
द्वे द्वे कन्ये सुतौ द्वौ द्वौ तेषां वृद्धिः क्रमादभूत्।

"पूर्वकाल में प्रतर्द्दन शाकद्वीप का राजा था, उसकी यह कामना हुई कि हम सदेह सूर्य-लोक को चले जायँ। ब्राह्मणों ने उससे कहा कि हम लोग सारी कामनाओं का पूरा करनेवाला सौरयज्ञ नहीं करा सकते। इससे तुम सूर्य-लोक में सदेह न जाओगे। ब्राह्मणों के वचन सुन कर राजा ने ३०० वर्ष तक कड़ी तपस्या की। तब सूर्य भगवान् प्रसन्न हो कर प्रकट हुये और उनसे बोले हे राजा! जो चाहते हो, माँग लो, हम वही वर देंगे। राजा ने उत्तर दिया कि हम सौरयज्ञ करना चाहते हैं परन्तु हमको कोई यज्ञ करानेवाले नहीं मिलते। सौरयज्ञ कराने का हमारा प्रयोजन यह है कि हम सदेह आप के पास पहुँच जायँ। इस पर सूर्य भगवान् ने आँखें बन्द कर, एक क्षण ध्यान किया और उनके प्रभा-मण्डल से उसी क्षण सात ब्राह्मण प्रकट हुये। सातो ब्रह्म-ज्ञानी और वेद वेदाङ्ग के पारंगत थे। उनको सूर्य भगवान् ने यज्ञ का सम्पूर्ण कर्म बताया और कहने लगे कि तुम लोगों को ऐसा आचरण करना चाहिये जिससे लोकों को पवित्र करने के लिये पृथ्वी तल पर तुम्हारी सन्तान सदा बनी रहे। इस पर उन ब्राह्मणों ने मानस-सन्तान उत्पन्न की। प्रत्येक के दो-दो पुत्र और दो-दो पुत्रियाँ हुई और क्रम से उनकी संसार में वृद्धि होती रही।"