सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/२१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७७
अयोध्या में शाकद्वीपी राजा

पर धनवावाँ से भेज दिया गया था विद्रोहो लूट ले गये। इसके कुछ दिन पीछे नानपारे के मैदान में पन्दरह हज़ार बागी इकट्ठा हुये। महाराजा साहब बरगदिया के मैदान में बड़ी वीरता से उनसे भिड़ गये। उस समय गोरों की पल्टन भी आ गई थी परन्तु वह हट गई। केवल तीन तोपखाने महाराजा मानसिंह के साथ रहे। एक ही घण्टे के युद्ध में बागी भाग गये।

महाराजा मानसिंह को अंग्रेज़ी सरकार की खैरख्वाही करने पर भी अपने देश की भलाई का विचार रहा जिसका प्रमाण एक परवाना हमारे पास है जो उन्होंने लाला ठाकुरप्रसाद को लिखा था। उसका सारांश यह है:—

"मित्रवर लाला ठाकुरप्रसाद जी। प्रकट है कि आज-कल लखनऊ खास में सरकारी अमलदारी हो गई है और विद्रोह के कारण हज़ारों आदमी मारे जा रहे हैं। लखनऊ का झगड़ा हमको विदित है इस लिये तुमको लिखा जाता है कि पत्र के पाते हज़ार काम छोड़ कर इस काम को प्रधान मान कर हाकिमों के पास जाकर विनती करके हमको सूचना दो ... सफलता होने पर तुम्हारी सन्तान का पालन पीढ़ी दर पीढ़ी होगा।"

महाराजा मानसिंह को इन खैरख्वाहियों के बदले गोंडा ज़िले का तालुक़ा विशम्भरपूर उपहार में दिया गया और सात हजार रुपये की खिलत मिली और महाराजा की पदवी दी गई। उस सनद की प्रतिलिपि हमारे पास अब तक रक्खी है।

महाराजा मानसिंह का ११ अक्टूबर सन् १८७० ई० को स्वर्गवास हो गया। महाराजा साहब वीर होने के अतिरिक्त बड़े राजनीतिज्ञ और बड़े विद्वान और गुणग्राहक थे। उनके दरबार में पंडित प्रवीन आदि अनेक अच्छे कवि थे और आप द्विजदेव उपनाम से कविता करते थे। उनकी रची शृङ्गारलतिका नायिकाभेद का उत्तम ग्रन्थ है। स्वर्गवासी

२३