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पृष्ठ:अयोध्या का इतिहास.pdf/३७

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अयोध्या का इतिहास

इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया। गोरखनाथ जी के शिष्य रत्ननाथ ने भी इस मन्दिर को बनवाया। मन्दिर के वामपक्ष पर हिन्दी में गोरखनाथ जी का नाम खुदा हुआ है। सबसे पीछे औरङ्गजेब के राजत्वकाल में तुलसीपुर के राजा ने इसे बनवाया। इस स्थान पर एक जगह कुँवाँ बना हुआ है।[]

कहते हैं कि सती जी जब जल गईं और शिवजी उनकी लोथ को कंधे पर डालकर पूर्व से पश्चिम की ओर दौड़े तो उनके अङ्ग जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ देवी जी का एक स्थान सिद्धपीठ हो गया। यहाँ भवानी की दक्षिण भुजा गिरी थी इसीसे इसका नाम देवीपाटन पड़ा। "पाटन" का अर्थ भुजा है।

गोंडा ज़िले के निम्नलिखित स्थान भी जानने योग्य हैं—

सोहागपुर—गोंडे के उत्तर है। यह च्यवन[] ऋषि की तपस्थली है। चमदई (चमनी) नदी इनके नाम से प्रकट हुई है। कन्नौज के राजा कुश ने अपनी कन्या इन्हें व्याह दी थी और देव-वैद्य अश्विनी-कुमारों ने इन्हें युवावस्था प्रदान की थी। मुनि ने इन्द्र से बारह दिन के लिये जाड़े में वर्षा माँग ली थी; माघान्त में छः दिन और फाल्गुनारम्भ में छः दिन। इसको च्यवनहार या च्यवन-बरहा कहते हैं।

पारासराय—यह पराशर जी की तपस्थली है किन्तु अब एक चबूतरा ही रह गया है।


  1. इसके बारे में लोग कहते हैं कि यहाँ से नव ग्रह और नक्षत्र अपने अपने स्थानों पर दिखाई देते हैं। सम्भव है कि यहाँ किसी समय मानमन्दिर रहा हो। यह मन्दिर जब बहुत प्रसिद्ध हुआ तब औरङ्गजेब ने एक सैनिक को भेज कर इसे तोड़वा डाला। "भगवती-प्रकाश" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि वह सैनिक मारा गया और जहाँ वह गाड़ा गया उसे "शूर-वीर" कहते हैं।
  2. इन्हीं के जवान होने के लिये "च्यवनप्राश" दवा बनायी गयी थी।