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अयोध्या का इतिहास

  संभव है कि नगरी के चारों ओर चार द्वार थे। सब द्वारों का नाम भी अलग अलग रक्खा गया होगा, किन्तु हमें एक द्वार के सिवाय और किसी द्वार का नाम नहीं मिलता। नगरी के पश्चिम ओर जो द्वार था उसका नाम था "वैजयन्तद्वार"। शत्रुघ्न सहित राजकुमार भरत जब मातुलालय (मामा के घर) गिरिव्रज नगर से अयोध्या में आये थे तब इसी द्वार से प्रविष्ट हुये थे। यथा—

"द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशञ्छान्तवाहनः"।

नगरी से जो पूर्व की ओर द्वार था, उसी से विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण सिद्धाश्रम वा मिथिला नगरी को गये थे। किन्तु दक्षिण का द्वार राम-लक्ष्मण और सीता की विषादमयी स्मृति के साथ अयोध्यावासियों को चिरकाल तक याद रहा था। क्योंकि इसी द्वार से रोती हुई नगरी को छोड़ कर राम-लक्ष्मण और सीता दण्डक-वन को गये थे। और इसी द्वार से रघुनाथ जी की कठोर आज्ञा के कारण जगज्जननी किन्तु मन्दभागिनी सीता को लक्ष्मण वन में छोड़ कर आये थे। उत्तर की ओर जो द्वार था उसके द्वारा पुरवासी सरयू-तट पर आया जाया करते थे।

इस प्रकार अयोध्या 'कोट खाई' से घिर कर सचमुच 'अयोध्या' हो रही थी। पर हमारी अयोध्या की इन पुरानी बातों को दो चार व्यूहलर और वेबर आदि दुराग्रही विलायती पण्डित सहन नहीं करते। उनके लिये यह असह्य और अन्याय की बात हो रही है कि जब उनके पितर वनचरों के समान गुज़ारा कर रहे थे उस समय हिन्दुओं के भारतवर्ष पूर्ण सभ्यता और आनन्द का डंका बज रहा था! लाचारी से हमारी पुरानी बातों का इन्हें खण्डन करना पड़ता है। लण्डन नगर का चाहे जितना विस्तार हो, 'पेरिस' चाहे जितनी बड़ी हो, यह सब हो सकता है, किन्तु अयोध्या का अड़तालीस कोस में बसना सब झूठ है! इतना ही नहीं, एक साहब ने कहा है, कि अयोध्या के चारों ओर कोट को जगह