पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१०

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          अलंकारचंद्रिका

अच्छहिं निरच्छ कपि कच्छ है उचारौ इमि तोम तिच्छ तुच्छन को कछुवै ज गंत हौं। जारि डारौ लंकाहि उजारि डारौ उपवन, फारि डारौ- गवन को तो में हनुमंत हों। छप्पय-मुंड करत कहुँ रुंड नटत कहुँ सुंड पटत घन । गिद्ध लमत कहुँ सिद्ध हसत मुख बृद्धि रसत मन ।। भूत फिरत करि बूत भिरत मुर दृत विरत तहँ । चंडि नचत गन मंडि रचत 'धुनि डंडि मचत जहँ ।। इमि ठानि घोर घममान अति, भूपन' तेज कियो अटल । सिवराज साहिमुव खग्ग बल, दन्नि अडोल बहलोत्न-दल ॥ पुनः- क्रुद्ध फिरत अति युद्ध जुरत नहिं रुद्ध मुग्त भट। खग्ग वजत अरि बग्ग तजत सिर पग्ग सजत चट ॥ दुक्कि फिरत मद भुकि भिरत करि कुकि गिरत गनि । रंक रकत हर संग छकत चतुरंग थकत भनि ।। इमि करि संगर अति ही विषम 'भूषन' मुजस कियो अचल । सिवराज साहिमुव खग्ग बल, दलि अडोन्न बहनोन्न-दल ॥ पुनः-खग काक कंक शृगाल । कटकहि कठिन कराल ।

   ( कोमला वृत्ति के अनुकूल )

जैसे-सत्य सनेह सील सुख सागर । दो०-स्यामल गौर किमोर बर सुंदर मुबमा ऐन । कवित्त-ख्याल ही की खोज में अखिन ख्यात्न ग्बल खेल, गाफिल दै भूलो दुख दोष को खग्स्याली तें। लाख लाख भाँति अभिलाख लग्वे लाल, अरु अत्लख लख्यो न लखी लालन की लाली ते ॥ हरिहर 'देव' प्रभु सों न पल पाली प्रीति, दे दे करताली न रिझायो बनमाली तें ।