पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१०४

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सुर, १०० अलंकारचंद्रिका दो०-नृपति राम के राज्य में है न सूल दुःखमूल । लखियत चित्रन में लिखो संकर के करसूल ॥ यहाँ राज्य भर में 'शूल' ( कट ) का वर्जन करके केवल चित्रित शंकर के हाथ में शूल ( त्रिशूल ) को स्थापित किया है। यही अलंकारता है । पुनः- दो०--दंड जतिन कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज । जीतो मनसिज सुनिय अस रामचन्द्र के राज ॥ यहाँ यह कहा गया कि रामराज्य में दंड ( सजा ) कहीं नहीं है, केवल नाममात्र को दंड (लाठी ) संन्यासियों हाथ में है। भेद ( भेदनीति ) कहीं नहीं है , केवल नृत्यक समाज में ताल, राग का इत्यादि का भेद (बिलगाव ) देखा जाता है, और कोई किसी को जीतने का उद्योग नहीं करता, केवल काम को जीतने की इच्छा करते हैं। इसी प्रकार और भी समझना। जैसे- कवित्त-साम को तो काम मुनिवर के मुखन माहि, और ठौर मैं तो तासो रंचक न काज है। दाम जल भरिवे के काम ही में देखियत, दंड को निवास एक कर यतिराज है। 'रतनेश' भेद एक सुर के मिलाइवे मैं, देखो जहाँ होत गान नृत्य को समाज है। साम दाम दंड भेद अनत न देखे कहूँ, ऐसो सुखदाई रघुराज जू को राज है। दो०-केसन ही में कुटिलता संचारिन मैं संक। लखो राम के राज मैं इक ससि माहि कलंक ॥ पुनः-(काव्य छन्द) मूलन ही को जहाँ अधोगति 'केसब' गाइय । होम हुतासन धूम नगर एकै मलिनाइय ॥