पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१०५

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में रंकता। परिसंख्या १०१ दुर्गति दुर्गन ही जु कुटिल गति सरितन ही में श्रीफल को अभिलाष प्रकट कबिकुल के जी में । (रामचन्द्रिका) पुनः-( कवित्त ) सत्रु को उथापि पीछे थापिबे, में व्रत भंग, दीखत युधिष्ठिर में गिद्धन में कंकता। कैद लोक कुल की त्यों बेद मरजाद ही में, स्वैरगति मारुत में चातक इति ग्रन्थ पूर्णता में 'संकर' लिखैया लिखें, चोरी इतिहास में है होरी में निसंकता। चंद्रमा में काहू कालराहू ते ससंकता, त्यौं द्वितिया में बंकता है पूनो में कलंकता ॥१॥ आये जुरि जाचिबे को जाँचक जहाँ लौं रहे, एहो कबि 'रघुनाथ' आज तीनों थर में। एते मान दान तिन्हें भूप दसरथ दीन्हें, देत न दिखाई कहुँ कोऊ सौज घर में। बसन के नाते पास बास कौसिला के एक, भूषन के नाते नथ नाक छला कर में। घोरे हाथी चित्रन के रहे चित्रसारी माहिं, राम के जनम रहे दाम दफतर में ॥२॥ दो०-पत्राही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास । नित प्रति पूनों ही रहत आनन भोप उजास ॥ कवित्त-अति मतवारे जहाँ दुरदै निहारियत, तुरगन ही में चंचलाई परकीति है 'भूषन' भनत जहाँ पर लगैं बानन में, कोक पच्छिनहिं माहिं बिछुरनरीति है 1 1 1