पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११३

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स्वभावोक्ति १०९ पहले कोई बात कहके उपमान वाक्य की भाँति लोकोक्ति कही जाय, वहाँ छेकोक्ति होगी। यथा- १-दो०-जे सोहात सिवराज को ते कवित्त रसमूल । जे परमेश्वर पै च. तेई आछे फूल ।। २-दुरावत हौ सहवासिन सो 'रधुनाथ' वृथा बतियान के जोर । सुनौ जग में उपखान प्रसिद्ध है चोरन की गति जानत चोर । ३-औरंग जोचढ़ि दक्खिन आवे तोह्यांतेसिधावै सोऊबिन कप्पर । दीनो मुहीम को भार बहादुर छागो सहै क्यों गयंद कोझप्पर ॥ सासता खाँ सँग वे हठि हारे जे साहेब सातएँ ठाँके भुवप्पर । ये अब सूबहू आवै सिवा पर काल्हि के जोगी कलींदे को खप्पर ॥ ४-छिति नीर कृसानु समीर प्रकास ससीर बिहू तन रूपधरै। अरु जागत जीवत हू 'मतिराम' सो आपनी जोति प्रकास करै ।। जगईस अनादि अनंत अपार वही सब ठौरन में बिहरै ॥ सिगरे तन मोहन मोय रहे तिन ओट पहार न देखि परै॥ ६-सत्य सराहि कहा बर देना । जानेहु लेइहि मॉगि चवेना ।। ३९-स्वभावोक्ति दो०-जाको जैसो रूप गुन बरनत ताही साज । सुभावोक्ति भूषन तहाँ कह सवै कबिराज ॥ विवरण-जाति वा अवस्था के अनुसार जिसका जिस समय जैसा प्राकृतिक कृत्य हो वैसा ही कहना स्वभावोक्ति अलंकार है। इसके दो प्रकार हैं-(२) सहज (२) प्रतिज्ञाबद्ध । १-दो०-धूरि धुरेटे धरनि में धरत लटपटे पाय । लाल अटपटेाखरन भाषत सखि हरषाय ॥ २-धूसर धूरि भरे तनु आये । भूपति बिहँसि गोद बैठाये ।।