पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११४

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११० अलंकारचंद्रिका ३-दो०-भोजन करत चपल चित इत उत अवसर पाय । भागि चलत किलकात मुख द्धि अोदन लपटाय ॥ [कृष्णवानिक ] -सीस मुकुट कटि काछनी कर मुरली उर माल । यहि वानिक मों उर बसौ सदा विहारी लाल ॥ [तुरंग स्वभाव] ५-जित रुख पावै तित पहुँचावै छन आवै छन जावे । जमि जमि थमि थमि थिरकि भूमि पर गति नहिं तेहि दरसावै। फादत चंचल चारु चौकड़ी चपलहु के चख झापै भरत कुँवर को तुरंग रंगीलो बरनि जाय कहु कापै ॥ [ कुलस्वभाव] ६-कहीं सुभाव न कुलहि प्रसंसी । कालहु डरहिं न रन रघुवंसी। ७-रघुकुल रीति सदा चलि आई । प्रान जाइ बरु बचन न जाई। ( तात्पर्य यह कि जिस समय जिसका जैसा रूप गुण हो; उस समय वैसा ही कहना) सूचना-किसी का कोई स्वाभाविक गुण साधारणतः प्रकट नहीं होता, वह किसी मनोविकार की उत्तेजना के समय प्रतिज्ञारूप से प्रकट होता है। उसे प्रतिज्ञाबद्ध स्वभाव कहते हैं। ऐसे स्वभाव का वर्णन भी स्वभावोक्ति ही कहा जाता है। जैसे- २-प्रतिज्ञाबद्ध स्वभावोक्ति १-सिव संकल्प कीन्ह मन माहीं। यहि तन सिवहि भेट अब नाहीं।। २-दो-तोरों छत्रक दंड जिमि तुव प्रताप बल नाथ । जो न करौं प्रभु पद सपथ पुनि न धरौं धनु हाथ ॥ ३-जो सत संकर करें सहाई । तदपि हतौं रन राम दोहाई ॥ सूचना-ऐसी स्वभावोक्ति सशपथ वा असंभव कथन द्वारा प्रकट की जाती है। यथा-