पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११५

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अत्युक्ति ४-वारि टारि डारौं कुंभकर्णहिं बिदारि डारौं, मारौं मेघनादै अाजु यौं बल अनंत हौं। कहै 'पदमाकर' त्रिकूटहूँ को ढाहि डारौं, डारत करेई जातुधानन को अन्त हौं ॥ अच्छहि निरच्छ कपि रुच्छ है उचारौं इमि, तो से तिच्छ तुच्छन को कछुवै न गंत हौं। जारि डारौं लंकहि उजारि डारौं उपवन, फारि डारौं रावन को तो मैं हनुमंत हौं । पू-लोक तिजारौं सातो सागर सुखाय डारौं, गिरिन ढहाय डारौं भूमि उलटाऊँ मैं। रंच में बिदारि डारौं दसो दिगपालन को, खगन समेत ससि सूरहिं गिराऊँ मैं नभते पताल लैके कितहूँ कहूँ जो नेक, 'रसिकबिहारी' प्रानप्यारी सुधि पाऊँ मैं। जानकी न लाऊँ तो पै छत्री न कहाऊँ, राम नाम पलटाऊँ धनुबान ना उठाऊँ मैं ॥ ४०-अत्युक्ति दो०-योग्य व्यक्ति की योग्यता अति करि बरनी जाय । भूषन सो अत्युक्ति है समु. जे मतिराय ॥ सुन्दरता अरु सूरता अरु उदारता भाव । या भूपन में कहत ही उर उपजै अति चाव ॥

  • इस अलंकार को अँगरेजी में 'एग्जैगरेशन' ( Exaggeration)

और फारसी तथा उर्दू में 'मुवालिगा' कहते हैं ।