सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/११६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

११२ अलंकारचंद्रिका (सुन्दरता) दो०-भूषन भार संभारि है क्यों वह तन सुकुमार । सूधे पाय न धर परत महि सोभा के भार ॥ पुनः-सुमनमयी महि में कर जब राधिका विहार । तब सखियाँ संगहि फिरे हाथ लिये कचभार ॥ (शूरता) १-जानु त्रास डर कह डर होई । २-जा दिन चढ़त दल साजि अवधूतसिंह, ता दिन दिगंत लौ दुवन दाटियतु है। प्रले कैसे धराधर धमक नगारा धूरि, धारा ते समुद्रन की धारा पाटियतु है। 'भूषन' भनत भुवगोल कोल हहरत, कहरत दिग्गज मगज फाटियतु है। कीच से कचर जात सेष के असेष फन, कमठ की पीठि पै पिठी सी बाँटियतु है। छन्द-कह 'दास तुलसी' जबहि प्रभु सरचाप कर फेरन लगे। ब्रह्मांड दिग्गज कमट अहि महि सिंधु भूधर डगमगे॥ दो०-इनै उच्च सैलन चढ़े तुव डर अरि सकलत्र । तोरत कंपित करन सो मुकुता समुझि नक्षत्र ॥ (उदारता) १-दो०-बारिद् लौं वसु बरसि के कविकुल किये कुवेर । निकट जो होतो मेरु तो देत न होती देर । २-जाचक तेरे दान ते भये कल्पतरु भूप ॥ ३-मैं हौं अनाथ अनाथन में तजि तेरोइ नाम न दूजो सहायक । मंगन तेरे के मंगन ते कलपद्रुम अाजु है माँगिवे लायक ॥