(३) ऋ, ऋ, ट, ठ, ड, ढ, ण, र और प का उच्चारण मूर्द्धा से होता है।
(४)लृ, लृ, त, थ, द, थ, न, ल और स का उच्चारण दाँतों से होता है।
(५) उ, ऊ, प, फ, ब, भ और म का उच्चारण ओठों से होता है।
(६) ए, ऐ का उच्चारण कंठ और तालु से होता है।
(७) ओ औ का उच्चारण कंठ और ओठ से होता है।
(८) व का उच्चारण दाँत और ओठ से होता है।
(६) पंचम वर्ण और अनुसार का नासिका से होता है।
सूचना—इस विचार से जब कविता में ऐसे शब्द रक्खे जाते हैं जो एक स्थानीय उच्चारणवाले अक्षरों से बने हों तो उस कविता में एक प्रकार की धाराप्रवाहिनी शक्ति और मधुरता आ जाती है और उसका सुनना कानों को प्रिय लगता है। इसके विरुद्ध टगणवाले शब्द कानों में खटकते हैं। जैसे—
'तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुगई'
इसमें अधिकतर दंत्य अक्षर आये हैं, इसने यह पद बहुत मीठा जान पड़ता है। और "पर क्या न विषयोत्कृष्टता करती विचारोत्कृष्टता" इस रचना में शब्दों का संगठन वैसा नहीं है, इसलिये कानों को कटु जान पड़ता है। इसी तरह और भी समझ लो। तुलसी और पद्माकर की कविता में यह गुण अधिक है।
लाटानुप्रास
दो॰–शब्द अर्थ एकै रहै, अन्वय करतहि भेद।
सो लाटनुप्रास है, भापत सुकवि अखेद॥