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पृष्ठ:अलंकारचंद्रिका.djvu/१७

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यमक

दो॰—तो पर वारों उरबसी, सुनु राधिके सुजान।
तू मोहन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥
भजन कह्यो तासों भज्यो, भज्यो न एको बार।
दूरि भजन जासों को, सो तैं भज्यो गँवार॥
मूरति मधुर मनोहर देखी। भयउ बिदेह बिदेह बिसेषी।
दो॰—वारन ते बारन कहूँ, होत जु बारन नाहिं।
लागी बार न बधत रिपु, इन्हें सु वारन माहिं॥

सवैया

सुधाधर में बमुधाधर में औ सुधाधर में त्यों सुधा में लसै।
अलिबुंदन में अलिबृंदन में अलिबृंदन में अतिसै सरसै।
हिय हारन में हुरिहारन में हिमिहारन में रघुराज लसै।
ब्रजबारन बारन बारन बारन वार बसंत बसै।

पुनः—ऐसी परीं नरम हरम पातसाहन की नासपाती खाती ते वनालापाती खाती हैं।

ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहनवारी,
ऊँचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंदमूल भोग करै कंदमूल भोग करै,
तीन वेर खातीं सो वै तीन वर खाती हैं।
भूखन सिथिल अंग भूखन सिथिल अंग,
बिजन डोलातीं ते बै बिजन डोलाती हैं।
'भूषन' भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वै नगन जड़ाती हैं।

(मुक्तपदग्राह्य यमक)[]

दो॰—चरण अंत अरु आदि के, यमक कुण्डलित होय
मुक्तपदाग्रह है वही, सिंहवलोकन सोय॥ यथा—


  1. 'सिंहावलोकन' को फारसी में 'सनअत इरसाद' कहेंगे।